सेवा करने वाला स्वामी हो जाता है

सेवा लेने वाला गुलाम रहता है और सेवा करने वाला स्वामी हो जाता है | सेवक आये तो स्वामी लाचार होता है कि 'अरे आज फलाना नहीं आया, अरे वो आया नहीं' लेकिन जो सेवा करता है स्वामी आये चाहे आये सेवक तो अपना उनकी पराधीनता महसूस नहीं करता है नौकरानी की याद में सेठानी दुःखी होती है लेकिन सेठानी की याद में नौकरानी दुखी नहीं होती है , नौकरानी तो रुपयों की याद में दुखी हो सकती है, सेठानी की याद में नौकरानी दुखी नहीं होती सेवा लेने वाला भले सेवक को याद करे लेकिन सेवा करने वाले की गाड़ी तो ऐसे ही चल जाती है

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति “

सच्ची सेवा

सच्ची सेवा का उदय उसी दिन से होता है कि सेवक प्रण करले कि मुझे इस मिटने वाले नश्वर शरीर को,कब छूट जाये कोई पता नहीं इस नश्वर शरीर से , इस नश्वर तन से अगर हो सके तो ,शारीरिक क्षमता हो तो, तन से सेवा करुँगा ।  और भाव सबके लिए अच्छा रखूंगा ये मन से सेवा करे ।  और लक्ष्य सबका ईश्वरीय सुख बनाऊंगा ये बुद्धि से सेवा करने का निर्णय कर ले और बदले में मेरेको कुछ नहीं चाहिए। बदले में कुछ नहीं चाहिए क्योंकि शरीर प्रकृतिका है मन प्रकृति का है बुद्धि प्रकृति की है. और जहाँ सेवा कर रहे है वो संसार प्रकृति का है। संसार के लोग प्रकृति के है, संसार की परस्थिति प्रकृति की है।  तो प्रकृति की चीजे प्रकृति में अर्पण कर देने से आप प्रकृति के दबाव से और प्रकृति के आकर्षण से मुक्त हो जाते है । जब प्रकृति के दबाव से और प्रकृति के आकर्षण से मुक्त हुए तो आप परमात्मा में टिक गए। जो आपका स्वतः स्वभाव था आप उसमे टिक गए। उसके आनंद में आप आ गए।

 ये एक दिन की बात नहीं है , धीरे धीरे होगा | लेकिन रोज ये मन को बताये कि हमको तो सेवा करनी है।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति “

ज्ञानी महात्मा की सेवा

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।

'उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भली भाँति दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्त्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।'
(भगवद् गीताः 4.34)

सच्ची सेवा में सफलता

जो किसी को प्रेम करता है वो किसी को द्वेष करेगा।  जो कुछ चाहता है वो कुछ गँवाता है । लेकिन  जो कुछ नहीं चाहता वह कुछ नहीं गँवाता ।  और जो किसीको प्रेम नहीं करता वो सबको प्रेम करता है और जो सबको प्रेम करता वो किसी व्यक्तित्व में परिस्थितित्व में बंधता नहीं है और वो निर्बंध हो जाता है।  तो जो निर्बंध हो जाता है तो दूसरोंको भी निर्बंध करने का सामर्थ्य उसका निखरता है।  जो निर्दुःख हो जाता है वो दूसरों के दुःख दूर करनेमें सक्षम हो जाता है। जो निरहंकार हो जाता है वो सच्ची सेवा में सफल हो जाता है। औरोंको निरहंकार होने के रास्ते पे ले जाता है।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति “

सच्चाई से सेवा

सेवा में जो बदला चाहता है वो सेवा के धन को कीचड़ में डाल देता है। सेवा करे और बदला कुछ मिले, हमारा यश हो , हमें पद मिले, हमें मान मिले, तो वह सेवक व्यक्तित्व बनाना चाहता है और व्यक्तित्व हमेशा सत्य से विरोध में खड़ा रहेगा। व्यक्तित्व सत्य से विरोध में खड़ा रहेगा तो सत्य स्वरुप (सच्चाई) से सेवा नहीं करने देगा। जो सच्चाई से सेवा नहीं करने देगा तो सच्चाई से मुक्ति भी नहीं पाने देगा। सच्चाई तो ये है कि सेवा के बदले कुछ न चाहना। जब कुछ न चाहेंगे तो जिसका सब कुछ है वो संतुष्ट होगा अपना अंतरात्मा तृप्त होगा, खुश होगा।  जब अंतरात्मा तृप्त होगा, खुश होगा तो सब कुछ न चाहने वालो को तो सब कुछ मिलता है।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति “

विश्व की सेवा

जो अपनी सेवा कर सकता है वह विश्व की सेवा कर सकता है। चाहे उसके पास रुपया पैसा नहीं हो, फिर भी वह सेवा कर सकता है। किसीको रोटी खिलाना, वस्त्र देना इतना ही सेवा नहीं है,किसीको दो मीठे शब्द बोलना,उसके दुःख को  हरना यह बड़ी सेवा है। निगुरे को गुरु के द्वार पर पहुचाना ये बड़ी सेवा है। असाधक को साधक बनाना ये भी सेवा है। अनजान को जानकारी देना ये भी सेवा है। भूखे को  अन्न देना यह सेवा है।  प्यासे को पानी देना यह सेवा है। अभक्त को भक्त बनाना यह सेवा है। उलझे हुए की उलझने मिटाना यह सेवा है और जो देता है वो पाता है। जो दूसरोंको कुछ न कुछ देता है...और नहीं तो दो मीठे शब्द ही सही ,और नहीं तो दो भगवान की बात ही सही।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति “

अपनी सेवा

प्रभु की सेवा वही कर पाता है जो अपनी सेवा कर पाता है, और अपनी सेवा वही है कि अपने को परिस्थितियों  का गुलाम ना बनाये। परिस्थितियों की दासता से मुक्त करे। वही स्वतंत्र व्यक्ति है और जो स्वतंत्र है वही सेवा कर सकता है | पद और कुर्सी मिलने से सेवा होगी और बिना कुर्सी के सेवा नहीं होगी - ये नासमझी है।


पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति “

मन को छूट मत दो

मन में विकार आयें तो विकारों को सहयोग देकर अपना सत्यानाश मत करो। दृढ़ता नहीं रखोगे और मन को जरा-सी भी छूट दे दोगे कि 'जरा चखने में क्या जाता है.... जरा देखने में क्या जाता है.... जरा ऐसा कर लिया तो क्या? ....जरा-सी सेवा ले ली तो उसमें क्या?...' तो ऐसे जरा-जरा करते-करते मन कब पूरा घसीटकर ले जाता है, पता भी नहीं चलता। अतः सावधान !मन को जरा भी छूट मत दो।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘हमारे आदर्श’

आगे बढ़ता जा

हे विद्यार्थी ! तू अपने को अकेला मत समझना... तेरे दिल में दिलबर र दिलबर का ज्ञान दोनों हैं.... ईश्वर की असीम शक्ति तेरे साथ जुड़ी है। परमात्म-चेतना और गुरुतत्त्व-चेतना, इन दोनों का सहयोग लेता हुआ तू विकारों को कुचल डाल, नकारात्मक चिन्तन को हटा दें, सेवा और स्नेह से, शुद्ध प्रेम और पवित्रता से आगे बढ़ता जा.....

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘हमारे आदर्श’

माता-पिता और गुरु की सेवा

शास्त्रों में आता है कि जिसने माता-पिता और गुरु का आदर कर लिया उसके द्वारा सम्पूर्ण लोकों का आदर हो गया और जिसने इनका अनादर कर दिया उसके सम्पूर्ण शुभ कर्म निष्फल हो गये। वे बड़े ही भाग्यशाली हैं जिन्होंने माता-पिता और गुरु की सेवा के महत्त्व को समझा तथा उनकी सेवा में अपना जीवन सफल किया।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘हमारे आदर्श’

जिसके जीवन में संयम है

जिनके जीवन में सयंम है, सदाचार है, जो यौवन सुरक्षा के नियमों को जानते हैं और उनका पालन करते हैं, जो अपने जीवन को मजबूत बनाने की कला जानते हैं और उनका पालन करते हैं, जो अपने जीवन को मजबूत बनाने की कला जानते हैं वे भाग्यशाली साधक, चाहे किसी देवी-देवता या गुरु की सेवा-उपासना करें, सफल हो जाते हैं। जिसके जीवन में संयम है ऐसा युवक बड़े-बड़े कार्यों को भी हँसते-हँसते पूर्ण कर सकता है।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘हमारे आदर्श’

निष्कलंक चरित्र निर्माण के लिए

निष्कलंक चरित्र निर्माण के लिए नम्रता, अहिंसा, क्षमाशीलता, गुरुसेवा, शुचिता, आत्मसंयम, विषयों के प्रति अनासक्ति, निरहंकारिता, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि तथा दुःखों के प्रति अंतर्दृष्टि, निर्भयता, स्वच्छता, दानशीलता, स्वाध्याय, तपस्या, त्याग-परायणता, अलोलुपता, ईर्ष्या, अभिमान, कुटिलता व क्रोध का अभाव तथा शाँति और शौर्य जैसे गुण विकसित करने चाहिए।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘हमारे आदर्श’

मुक्ति की इच्छामात्र

मुक्ति की इच्छामात्र से मनुष्य में सदगुण आने लगते हैं। त्याग, क्षमा, वैराग्य, सहनशीलता, परोपकार, सच्चाई, सेवा दान आदि सब सदगुण केवल मुक्ति की इच्छामात्र से ही पनपने लगते हैं। देह को मैं मानने मात्र से शोषण, ईर्ष्या, राग-द्वेष, भय, हिंसा आदि दुर्गुण पनपने लगते हैं।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘गीता प्रसाद’

बुद्धिमानी क्या है ?

तन में शक्ति हो तो उसे सेवा में लगा दो। मन है उसे दूसरे को प्रसन्न करने में लगा दो क्योंकि दूसरे के रूप में भी वही परमात्मा है। दो पैसे हैं तो दूसरों के आँसू पोंछने में लगा दो। बुद्धि है तो दूसरे की भ्रमणा हटाने में लगा दो। यही बुद्धिमानी है।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘गीता प्रसाद’

जागता नर सेवीए


धनभागी हैं वे लोग जो 'गोरख ! जागता नर सेवीए।' इस उक्ति के अनुसार किसी आत्मवेत्ता संत को खोज लेते हैं! गुरुसेवा व गुरुमंत्र का धन इकट्ठा करते हैं, जिसको सरकार व मौत का बाप भी नहीं छीन सकता। आप भी वही धन पायें।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘भगवन्नाम जप महिमा’

गुरूसेवा सब भाग्यों की जन्मभूमि

"गुरूसेवा सब भाग्यों की जन्मभूमि है और वह शोकाकुल लोगों को ब्रह्ममय कर देती है | गुरुरूपी सूर्य अविद्यारूपी रात्रि का नाश करता है और ज्ञानाज्ञान रूपी सितारों का लोप करके बुद्धिमानों को आत्मबोध का सुदिन दिखाता है |"
-संत ज्ञानेश्वर महाराज
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘दिव्य प्रेरणा प्रकाश’


विद्यार्थी को गुरुसेवा करनी चाहिए

राजा जनक शुकदेवजी से बोले :

“बाल्यावस्था में विद्यार्थी को तपस्या, गुरु की सेवा, ब्रह्मचर्य का पालन एवं वेदाध्ययन करना चाहिए |”
तपसा गुरुवृत्त्या च ब्रह्मचर्येण वा विभो |

- महाभारत में मोक्षधर्म पर्व
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘दिव्य प्रेरणा प्रकाश’

दीन-दुःखियों की सेवा

अग्नि में घी की आहुतियाँ देना भी यज्ञ है और दीन-दुःखी-गरीब को मदद करना, उनके आँसू पोंछना भी यज्ञ है और दीन-दुःखियों की सेवा ही वास्तव में परमात्मा की सेवा है, यह युग के अनुरूप यज्ञ है। यह इस युग की माँग है।


पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘भगवन्नाम जप महिमा’

आज कुछ सेवा की ?

क्या तुमने आज किसी की कुछ सेवा की हैयदि नहीं तो आज का दिन तुमने व्यर्थ खो दिया।
 यदि किसी की कुछ सेवा की है तो सावधान रहो, मन में कहीं अहंकार न आ जाय।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘अमृत के घूँट’

नमस्कार की महिमा

प्रतिदिन सुबह-शाम माता-पिता एवं गुरुजनों के चरणों में प्रणाम करना चाहिए। नमस्कार की बड़ी महिमा है।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य बर्द्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।।
जो प्रतिदिन बड़ों की सेवा करता है, उनके चरणों में प्रणाम करता है एवं उनकी सीख के अनुसार चलता है उसकी आयुष्य, विद्या, यश एवं बल चारों बढ़ते हैं।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘आंतर ज्योत’

सत्पुरुषों की सेवा करने से चित्त निर्मल

श्री वशिष्ठजी कहते हैं- "हे रामचंद्र जी !  जैसे कसौटी पर कसने से स्वर्ण अपनी निर्मलता प्रगट कर देता है वैसे ही शुभकर्म या पुण्यकर्म करने से तथा सत्पुरुषों की सेवा करने से चित्त निर्मल हो जाता है। 

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘आंतर ज्योत’

व्याधियों को दूर करने में साधुसेवा सहायक

इन्द्रियों का स्वामी मन है। मन का स्वामी प्राण है। प्राण यदि क्षुभित होते हैं तो नाड़ियाँ अपनी कार्यक्षमता खो बैठती हैं, जिससे व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। ऐसी व्याधियों को दूर करने में मंत्रजाप, साधुसेवा, पुण्यकर्म, तीर्थस्नान, प्राणायाम, ध्यान, सत्कृत्य आदि सहायक है। इनसे आधियाँ दूर होती हैं एवं आधियों के दूर होने से उनसे उत्पन्न व्याधियां भी मिट जाती हैं।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘आंतर ज्योत’

चिदानन्दमय देह तुम्हारी विगत विकार कोई जाने अधिकारी

कई लोग कहते हैं कि 'गुरु तो तत्त्व हैं, गुरु तो चिन्मयवपु हैं।' गुरु तत्त्व हैं तो गुरु का शरीर क्या भूत है?
चिदानन्दमय देह तुम्हारी विगत विकार कोई जाने अधिकारी।
जब सब ब्रह्म है, व्यक्त और अव्यक्त ब्रह्म है, तो उड़िया बाबा की देह अब्रह्म है क्या?
गुरु को केवल तत्त्व मानकर घर में ही प्रणाम कर लेते हैं, गुरु के पास जाना टालते हैं वे लोग अपने आपसे धोखा करते हैं। उनका अहं बचने की कोशिश करता है। गुरु के सामने झुकने में डर लगता है।
'ऐसी कौन सी जगह है जहाँ गुरु नहीं है?' – ऐसा कहकर लोग घर में ही बैठे रहते हैं। वासनाओं को पोषने का यह एक ढंग है। पत्नी के बिस्तर पर जायेंगे लेकिन गुरु के आश्रम में नहीं जायेंगे।
गुरु को केवल तत्त्व मानकर उनकी देह का अनादर करेंगे तो हम निगुरे रह जायेंगे। जिस देह में वह तत्त्व प्रकट होता है वह देह भी चिन्मय आनंदस्वरूप हो जाती है।
समर्थ रामदास का आनंद नामक एक शिष्य था। वे उसको बहुत प्यार करते थे। अन्य शिष्यों को यह देखकर ईर्ष्या होने लगी। वे सोचतेः 'हम भी शिष्य हैं। हम भी गुरुदेव की सेवा करते हैं फिर भी गुरुदेव हमसे ज्यादा प्यार आनन्द को देते हैं।'
एक बार समर्थ रामदास ने एक युक्ति की। अपने पैर में एक कच्चा आम बाँधकर ऊपर कपड़े की पट्टी लगा दी। फिर पीड़ा से चिल्लाने लगेः "पैर में फोड़ा निकला है.... बहुत पीड़ा करता है... आह...! ऊह...!"
कुछ दिनों में आम पक गया और उसका पीला रस बहने लगा। गुरुजी पीड़ा से ज्यादा कराहने लगे। सब शिष्यों को बुलाकर कहाः
"अब फोड़ा पक गया है, फट गया है। उसमें से मवाद निकल रहा है। मैं पीड़ा से मरा जा रहा हूँ। कोई मेरी सेवा करो। यह फोड़ा अपने मुँह से कोई चूस ले तो मिट सकता है।"
सब शिष्य एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। बहाने बना-बनाकर एक-एक करके सब खिसकने लगे। शिष्य आनंद को पता चला। वह तुरन्त आया और गुरुदेव के पैर को अपना मुँह लगाकर फोड़े का मवाद चूसने लगा। गुरुदेव का हृदय भर आया। बोलेः "बस.... आनंद! बस। मेरी पीड़ा चली गई।" मगर आनन्द ने कहाः
"गुरुजी ! अब क्या छोड़ूँ? ऐसा माल मिल रहा है फिर छोड़ूँ कैसे?"
ईर्ष्या करने वाले शिष्यों के चेहरे फीके पड़ गये।
बाहर से फोड़ा दिखते हुए भी भीतर से आम का रस है। ऐसे ही बाहर से फोड़े जैसे दिखनेवाले गुरुदेव के शरीर से आत्मा का रस टपकता है। महावीर के समक्ष बैठने वालों को पता है कि क्या टपकता है महावीर के सान्निध्य में बैठने से। संत कबीर के इर्द-गिर्द बैठनेवालों को पता है, श्रीकृष्ण के साथ खेलनेवाले ग्वालों और गोपियों को पता है कि उनके सान्निध्य में क्या बरसता है।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘अलख की ओर’

सेवा में प्रेम

पूजा-उपासना का लक्ष्य यदि परमात्म-प्राप्ति नहीं है और पुजारी होकर 300 रूपये की नौकरी करते रहे, मूर्ति की सेवा-पूजा करते रहे तो भी जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मूर्ति की सेवा-पूजा-उपासना में यदि प्रेम है, भावना है, लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति का है तो वह उपासना खण्ड की होते हुए भी हृदय में अखण्ड चैतन्य की धारा का स्वाद दे देगी। मूर्ति में भी अखण्ड चैतन्य की चमक देखते हैं तो जीवन उपासनामय बन जाता है।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘अलख की ओर’

भजन माने क्या ?

भजन माने क्या ? जिस कर्म से, जिस श्रवण से, जिस चिन्तन से, जिस जप से, जिस सेवा से भगवदाकार वृत्ति बने उसे भजन कहा जाता है।
संसार की आसक्ति मिटाने के लिए भजन की आसक्ति अत्यंत आवश्यक है। सारे ज्ञानों व बलों का जो आधार है वह आत्मबल व आत्मज्ञान पाना ही जीवन का उद्देश्य हो। जीवन का सूर्य ढलने से पहले जीवनदाता में प्रतिष्ठित हो जाओ, अन्यथा पछताना पड़ेगा। असफलता और दुर्बलता के विचार उठते ही उसे भगवन्नाम से और पावन पुस्तकों के अध्ययन से हटा दिया करो।
अय मानव ! ऊठ.... जाग...। अपनी महानता को पहचान। कब तक भवाटवी में भटकेगा ? जो भगवान वैकुण्ठ में, कैलास में और ऋषियों के हृदय में है वही के वही, उतने के उतने तेरे पास भी हैं। ऊठ... जाग....। अपने प्यारे को पहचान। सत्संग करके बुद्धि को बढ़ा और परब्रह्म परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जा।
शाबाश वीर....! शाबाश.... हिम्मत... साहस....
जो कुछ कर, परमात्मा को पाने के लिए कर। यही तुझे परमात्मा में प्रतिष्ठित पुरूषों तक पहुँचा देगा और तू भी परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जायगा।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘आत्मयोग’

ऐसा मिला है कि कभी खूट नहीं सकता

हम जब सदगुरूदेव के पास गये थे तो शुरू में जरा कठिनाइयाँ थीं। मूँग उबालकर खा लेते। नगरसेठ का बेटा होकर झाड़ू लगाते, बर्तन माँजते, आश्रम में सेवा करते। गुरूदेव तो नहीं कहते लेकिन हम सेवा छीन लेते थे। आश्रम में लोग कभी आते थे तो रसोई के बड़े बर्तन भी होते थे। पहाड़ी पथरीली मिट्टी या कोयले की राख होती थी बर्तन माँजने के लिए। हाथ में चीरे पड़ जाते थे, खून निकलता था तो पट्टी बाँधकर बर्तन माँज लेते थे। उस समय देखने वालों को लगता होगा कि बड़ा दुःख भोग रहा है। लेकिन अब लगता है वाह ! ऐसा मिला है कि कभी खूट नहीं सकता। ऐसा रस दे दिया है गुरू की कृपा ने।
सात्त्विक सुख पहले जरा दुःख जैसा लगता है। बाद में उसका फल बड़ा मधुर होता है। राजसी सुख पहले सुखद लगता है लेकिन बाद में मुसीबत में डाल देता है। तामसी सुख में पहले भी परेशानी और बाद में भी परेशानी...घोर नर्क।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘आत्मयोग’

लक्ष्मीजी की प्राप्ति किसको?


देवकीनन्दन श्रीकृष्ण के समीप रुक्मणीदेवी ने लक्ष्मी जी से पूछाः त्रिलोकीनाथ भगवान नारायण की प्रियतमे ! तुम इस जगत में किन प्राणियों पर कृपा करके उनके यहाँ रहती हो? कहाँ निवास करती हो और किन-किनका सेवन करती हो? उन सबको मुझे यथार्थरूप से बताओ।

रुक्मणीजी के इस प्रकार पूछने पर चंद्रमुखी लक्ष्मीदेवी ने प्रसन्न होकर भगवान गरुड़ध्वज के सामने ही मीठी वाणी में यह वचन कहाः

लक्ष्मीजी बोलीं- देवि ! मैं प्रतिदिन ऐसे पुरुष में निवास करती हूँ, जो सौभाग्यशाली, निर्भीक, कार्यकुशल, कर्मपरायण, क्रोधरहित, देवाराधतत्पर, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय तथा बढ़े हुए सत्त्वगुण से युक्त हों।

जो पुरुष अकर्मण्य, नास्तिक, वर्णसंकर, कृतघ्न, दुराचारी, क्रूर, चोर तथा गुरुजनों के दोष देखनेवाला हो, उसके भीतर मैं निवास नहीं करती हूँ। जिनमें तेज, बल और सत्त्व की मात्रा बहुत थोड़ी हो, जो जहाँ तहाँ हर बात में खिन्न हो उठते हों, जो मन में दूसरा भाव रखते हैं और ऊपर कुछ और ही दिखाते हैं, ऐसे मनुष्यों में मैं निवास नहीं करती हूँ। जिसका अंतःकरण मूढ़ता से आच्छान्न है, ऐसे मनुष्यों में मैं भलीभाँति निवास नहीं करती हूँ।

जो स्वभावतः स्वधर्मपरायण, धर्मज्ञ, बड़े-बूढ़ों की सेवा में तत्पर, जितेन्द्रिय, मन को वश में रखने वाले, क्षमाशील और सामर्थ्यशाली हैं, ऐसे पुरुषों में तथा क्षमाशील और जितेन्द्रिय अबलाओं में भी मैं निवास करती हूँ। जो स्त्रियाँ स्वभावतः सत्यवादिनी तथा सरलता से संयुक्त हैं, जो देवताओं और द्विजों की पूजा करने वालीं, उनमें भी मैं निवास करती हूँ।


जो अपने समय को कभी व्यर्थ नहीं जाने देते, सदा दान और शौचाचार में तत्पर रहते हैं, जिन्हें ब्रह्मचर्य, तपस्या, ज्ञान, गौ और द्विज परम प्रिय हैं, ऐसे पुरुषों में मैं निवास करती हूँ। जो स्त्रियाँ, देवताओं तथा ब्राह्मणों की सेवा में तत्पर, घर के बर्तन-भाँडों को शुद्ध तथा स्वच्छ रखने वाली और गौओं की सेवा तथा धान्य के संग्रह में तत्पर होती हैं, उनमें भी मैं सदा निवास करती हूँ।

जो घर के बर्तनों को सुव्यवस्थित रूप से न रखकर इधर-उधर बिखेरे रहती हैं, सोच-समझकर काम नहीं करती हैं, सदा अपने पति के प्रतिकूल ही बोलती हैं, दूसरों के घरों में घूमने फिरने में आसक्त रहती हैं और लज्जा को सर्वथा छोड़ बैठती है, उनको मैं त्याग देती हूँ।

जो स्त्री निर्दयतापूर्वक पापाचार में तत्पर रहने वाली, अपवित्र, चटोर, धैर्यहीन, कलहप्रिय, नींद में बेसुध होकर सदा खाट पर पड़ी रहने वाली होती है, ऐसी नारी से मैं सदा दूर ही रहती हूँ।

जो स्त्रियाँ सत्यवादिनी और अपनी सौम्य वेश-भूषा के कारण देखने में प्रिय होती हैं, जो सौभाग्यशालिनी, सदगुणवती, पतिव्रता और कल्याणमय आचार-विचार वाली होती हैं तथा जो सदा वस्त्राभूषणों से सुसज्जित रहती हैं, ऐसी स्त्रियों में सदा निवास करती हूँ।

जहाँ हँसों की मधुर ध्वनि गूँजती रहती है, क्रौंच पक्षी के कलरव जिनकी शोभा बढ़ाते हैं, जो अपने तटों पर फैले हुए वृक्षों की श्रेणियों से शोभायमान हैं, जिनके किनारे तपस्वी, सिद्ध और ब्राह्मण निवास करते हैं, जिनमें बहुत जल भरा रहता है तथा सिंह और हाथी जिनके जल में अवगाहन करते रहते हैं, ऐसी नदियों में भी मैं सदा निवास करती रहती हूँ।

सत्पुरुषों में मेरा नित्य निवास है। जिस घर में लोग अग्नि में आहुति देते हैं, गौ, ब्राह्मण तथा देवताओं की पूजा करते हैं और समय-समय पर जहाँ फूलों से देवताओं को उपहार समर्पित किये जाते हैं, उस घर में मैं नित्य निवास करती हूँ। सदा वेदों के स्वाध्याय में तत्पर रहने वाले ब्राह्मणों, स्वधर्मपरायण क्षत्रियों, कृषि-कर्म में लगे हुए वैश्यों तथा नित्य सेवापरायण शूद्रों के यहाँ भी मैं सदा निवास करती हूँ।

मैं मूर्तिमति तथा अनन्यचित्त होकर तो भगवान नारायण में ही संपूर्ण भाव से निवास करती हूँ, क्योंकि उनमें महान धर्म सन्निहित है। उनका ब्राह्मणों के प्रति प्रेम है और उनमें स्वयं सर्वप्रिय होने का गुण भी है।

देवी ! मैं नारायण के सिवा अन्यत्र शरीर से नहीं निवास करती हूँ। मैं यहाँ ऐसा नहीं कह सकती कि सर्वत्र इसी रूप में रहती हूँ। जिस पुरुष में भावना द्वारा निवास करती हूँ, वह, धर्म, यश और धन से संपन्न होकर सदा बढ़ता रहता है।
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्यायः11)

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘पर्वों का पुंजः दीपावली’

दीपावली पर्व कैसे मनाएं

दीपावली के पर्व पर हम अपने परिचितों को मिठाई बाँटते हैं, लेकिन इस बार हम महापुरुषों के शांति, प्रेम, परोपकार जैसे पावन संदेशों को जन-जन तक पहुँचा कर पूरे समाज को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करेंगे, ऐसा संकल्प लें। इस पावन पर्व पर हम अपने घर के कूड़े-करकट को निकालकर उसे विविध प्रकार के रंगों से रँगते हैं। ऐसे ही हम अपने मन में भरे स्वार्थ, अहंकार तथा विषय-विकाररूपी कचरे को निकाल कर उसे संतों के सत्संग, सेवा तथा भक्ति के रंगों से रँग दें।
योगांग झाड़ू धर चित्त झाड़ोविक्षेप कूड़ा सब झाड़ काढ़ो।
अभ्यास पीता फिर फेरियेगाप्रज्ञा दिवाली प्रिय पूजियेगा।।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘पर्वों का पुंजः दीपावली’

माँ महँगीबा की निष्ठा


एक बार मैंने माँ से कहाः "आपको सोने में तौलेंगे।".... लेकिन उनके चेहरे पर हर्ष का कोई चिह्न नजर नहीं आया।
मैंने पुनः हिला हिलाकर कहाः "आपको सोने में तौलेंगे, सोने में !"
माँ- "यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता।"
मैंने कहाः "तुला हुआ सोना महिलाओं और गरीबों की सेवा में लगेगा।"
माँ- "हाँ... सेवा में भले लगे लेकिन मेरे को तौलना-वौलना नहीं।"
मगर सुवर्ण महोत्सव के पहले ही माँ की यात्रा पूरी हो गयी। बाद में सुवर्ण-महोत्सव के निमित्त जो भी करना था, वह किया ही।
मैंने कहाः "आपका मंदिर बनायेंगे।"
माँ- "यह सब कुछ नहीं करना है।"
मैं- "आपकी क्या इच्छा है ? हरिद्वार जायें ?"
माँ- "वहाँ तो नहाकर आये।"
मैं- "क्या खाना है ? यह खाना है ? (अलग-अलग चीजों के नाम लेकर)"
माँ- "मुझे अच्छा नहीं लगता।"
कई बार विनोद का समय मिलता तो हम माँ से उनकी इच्छा पूछते। मगर पूछ-पूछकर थक गये लेकिन उनकी कोई ख्वाहिश हमको कभी दिखी ही नहीं। अगर उनकी कोई भी इच्छा होती तो उनके इच्छित पदार्थ को लाने की सुविधा मेरे पास थी। किसी व्यक्ति से, पुत्र से, पुत्री से, कुटुम्बी से मिलने की इच्छा होती तो उनसे भी मिला देते। कहीं जाने की इच्छा होती तो वहाँ ले जाते लेकिन उनकी कोई इच्छा ही शेष नहीं थी।
न उनमें खाने की इच्छा थी, न कहीं जाने की, न किसी से मिलने की इच्छा थी, न ही यश-मान की.... जहाँ मान-अपमान सब स्वप्न है, उसमें उनकी स्थिति हो गयी थी, इसीलिए तो उन्हें इतना मान मिल रहा है।
इस प्रसंग से करोड़ों-करोड़ों लोगों को, समग्र मानव-जाति को जरूर प्रेरणा मिलती रहेगी।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘संत माता माँ महँगीबाजी के मधुर संस्मरण’


चित्त का निर्माण कीजिये

सारे जप, तप, सेवा, पूजा, यज्ञ, होम, हवन, दान, पुण्य ये सब चित्त को शुद्ध करते हैं, चित्त में पवित्र संस्कार भरते हैं। प्रतिदिन कुछ समय अवश्य निष्काम कर्म करना चाहिए। चित्त के कोष में कुछ आध्यात्मिकता की भरती हो। तिजोरी को भरने के लिए हम दिनरात दौड़ते हैं। जेब को भरने के लिए छटपटाते हैं लेकिन तिजोरी और जेब तो यहीं रह जायेंगे। हृदय की तिजोरी साथ में चलेगी। इस आध्यात्मिक कोष को भरने के लिए दिन भर में कुछ समय अवश्य निकालना चाहिए। संध्या-वन्दन, पूजा-प्रार्थना, ध्यान-जप, निष्काम कर्म इत्यादि के द्वारा चित्त का निर्माण कीजिये।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘आत्मयोग’

अन्तर्यामी भगवान को प्यार

भगवान को पदार्थ अर्पण करना, सुवर्ण के बर्तनों में भगवान को भोग लगाना, अच्छे वस्त्रालंकार से भगवान की सेवा करना यह सब के बस की बात नहीं है। लेकिन अन्तर्यामी भगवान को प्यार करना सब के बस की बात है। धनवान शायद धन से भगवान की थोड़ी-बहुत सेवा कर सकता है लेकिन निर्धन भी भगवान को प्रेम से प्रसन्न कर सकता है। धनवानों का धन शायद भगवान तक न भी पहुँचे लेकिन प्रेमियों का प्रेम तो परमात्मा तक तुरन्त पहुँच जाता है।

अपने हृदय-मंदिर में बैठे हुए अन्तरात्मारूपी परमात्मा को प्यार करते जाओ। इसी समय परमात्मा तुम्हारे प्रेमप्रसाद को ग्रहण करते जायेंगे और तुम्हारा रोम-रोम पवित्र होता जायगा। कल की चिन्ता छोड़ दो। बीती हुई कल्पनाओं को, बीती हुई घटनाओं को स्वप्न समझो। आने वाली घटना भी स्वप्न है। वर्त्तमान भी स्वप्न है। एक अन्तर्यामी अपना है। उसी को प्रेम करते जाओ और अहंकार को डुबाते जाओ उस परमात्मा की शान्ति में।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘आत्मयोग’

यदि .... तो ....

यदि आपमें अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प है तो प्रगति अवश्य होगी। विनय भाव से सदगुणों का विकास होगा। दूसरों की सेवा करने की सच्ची निःस्वार्थ धुन है तो हृदय अवश्य शुद्ध होगा। दृढ़ विश्वास है तो आत्म-साक्षात्कार अवश्य होगा। यदि सच्चा वैराग्य है तो ज्ञान निःसन्देह होगा। यदि अटूट धैर्य है तो शांति अवश्य मिलेगी। यदि सतत् प्रयत्न है तो विघ्न बाधाएँ अवश्य नष्ट होंगी। यदि सच्चा समर्पण है तो भक्ति अवश्य आ जायेगी। यदि पूर्ण निर्भरता है तो निरन्तर कृपा का अनुभव अवश्य होगा। यदि दृढ़ परमात्म-चिन्तन है तो संसार का चिन्तन अवश्य मिट जायेगा। यदि सदगुरु का दृढ़ आश्रय है तो बोध अवश्य होगा। जहाँ सत्य का बोध होगा वहाँ समता अवश्य दृढ़ होगी। जहाँ पूर्ण प्रेम विकसित होगा वहाँ पूर्णानन्द की स्थिति अवश्य सुलभ होगी।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘इष्टसिद्धि’

निष्काम गुरूसेवा


वैदिक काल में सुभाष नाम का एक विद्यार्थी अपने गुरू के चरणों में विद्याध्ययन करने गया। विद्या तो पढ़ता था, लेकिन गुरूजी की अंगत सेवा में अधिक लग गया। ऐसी सेवा की, ऐसी सेवा की कि गुरूजी का दिल जीत लिया। विद्योपार्जन करके जब घर लौट रहा था, तब गुरूजी ने कहाः
"बेटा ! तूने मेरा दिल जीत लिया है। हम तो ठहरे साधारण साधू। हमारे पास कोई धन-वैभव, राज-सत्ता नहीं कि तुझे कुछ दे सकें। वत्स ! तेरा कल्याण हो !" ऐसा करके प्यारे शिष्य को छाती से लगा लिया। फिर अपनी छाती से एक बाल उखाड़कर उसे देते हुए बोलेः
"बेटा ! ले, यह प्रसाद के रूप में सँभालकर रखना। जब तक यह तेरे पास रहेगा, तब तक तुझे धन-वैभव-लक्ष्मी की चिन्ता नहीं रहेगी।"
"गुरूदेव! आपने तो मुझे सब कुछ पहले से ही दे दिया है।"
"सो तो है, लेकिन यह भी रख ले।"
सुभाष ने बड़े आदर से वह बाल अपने पास रखा। हर रोज उसकी सेवा-पूजा करने लगा। उसके घर में सुख-शान्ति और समृद्धि का साम्राज्य छा गया।
सुभाष के पड़ोसी ने देखा कि यह भी पढ़कर आया है और मैं भी पढ़कर आया हूँ। उससे भी अधिक पढ़ा हूँ। लेकिन इसके पास इतना वैभव और मेरे पास कुछ नहीं ? इसके पास धन छनाछन और मैं हूँ ठनठनपाल ? इसका सर्वत्र मान हो रहा है और मुझको कोई पूछता तक नहीं ? ऐसा क्यों ?
पड़ोसी ने सुभाष से पूछा। सुभाष तो रहा सज्जन, सरल हृदयवाला। उसने बता दिया किः "यह सब गुरूजी की कृपा है। मैंने उनकी हृदयपूर्वक सेवा की, उनकी कृपा प्राप्त की। मै विदा हुआ तो उन्होंने अपनी छाती का बाल मुझे दिया। मैं रोज उसकी पूजा करता हूँ। यह सब उन्हीं का दिया हुआ है।"
पड़ोसी ने सुभाष के गुरूजी का पता पूछ लिया और पहुँच गया वहाँ। प्रणाम करके बोलाः
"गुरूजी ! मै सुभाष के पड़ोस में रहता हूँ। आपका नाम सुनकर आया हूँ।"
"ठीक है।" गुरूजी बोले।
"गुरू जी महाराज ! आपकी सेवा करूँगा।"
"कोई सेवा नहीं है।"
उसके भीतर तो धन-वैभव पाने की कामना खदबदा रही थी। उसकी सेवा में क्या बरकत होगी ? आश्रम में इधर-उधर उछल कूद की, थोड़ा-बहुत दिखावटी काम किया। शाम हुई तो गुरूजी से बोलाः
"गुरूजी ! आप दयालु हैं। सुभाष को धन्य किया है। मुझ पर भी कृपा करो। मेरी इच्छा भी पूरी करो।"
"क्या इच्छा पूरी करें।?"
"मुझे भी अपना बाल उखाड़कर दो।"
"अरे भाई ! उसका तो कोई प्रारब्ध जोर मार रहा था, इसलिए ऐसा हुआ। हम कोई चमत्कार करनेवाले नहीं हैं।"
उस आदमी ने सोचा कि कैसा भी हो, गुरूजी की छाती के इतने छोटे-से बाल में इतनी शक्ति है तो जटाओं के लम्बे-लम्बे बालों  में कितनी शक्ति होगी ? वह उठा और गुरूजी की जटाओं में हाथ डाला। चार-पाँच बाल खींचकर भागा।
कामनावाला व्यक्ति अन्धा हो जाता है। काम और सुख-भोग के संकल्प उसकी बुद्धि का दिवाला निकाल देते हैं।
गुरूजी ने कहाः "तुझे बाल इतने प्यारे हैं तो जा, तुझे बाल-ही-बाल मिलेंगे।"
वह घर गया। भोजन करने बैठे तो थाली में बाल। पूजा करने बैठे तो बाल। परेशान हो गया। उसकी हालत ऐसी कैसे बनी ? काम और संकल्प की आधीनता से। सुभाष सुखी कैसे बना? काम और संकल्परहित होकर गुरूसेवा में तन्मय होने से। काम और संकल्प की निवृत्ति की तो धन, मान, यश, सुख और शांति उसके पीछे-पीछे आयी।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

संकल्प अपने लिए नहीं

कच गुरू के प्रिय पात्र कैसे बन पाये ? संजीवनी विद्या कैसे पायी ? कामसंकल्पविवर्जिताः होकर गुरू की सेवा करने से। उनमें अपनी वैयक्तिक कामना की अन्धाधुन्धी नहीं थी। बुद्धि में ओज था, विकास था, प्रकाश था। जब अपना स्वार्थ होता है तब दूसरों का हिताहित भूल जाते है, नीति-नियम भूल जाते हैं। अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और सुख के लिए कामना और संकल्प होता है तो आदमी गलती कर बैठता है। जिसका संकल्प अपने लिए नहीं होता, समष्टि के लिए होता है तो उसकी बुद्धि ठीक काम देती है। अपनी कामना से जहाँ कहीँ सुख लेने जाते हैं तो गड़बड़ी होती है। दूसरों को सुख देने, प्रसन्न करने लग जाते हैं तो उनके सुख और प्रसन्नता में अपना सुख और चित्त की प्रसन्नता अपने-आप आ जाती है। कार्यों में सफलता मिलती है वह मुनाफे में।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

बहुजनहिताय बहुजनसुखाय

व्यक्तिगत सुख की कामना को बदलना हो तो बहुजनहिताय.... बहुजनसुखाय का संकल्प करो। परोपकारार्थ संकल्प होते ही और व्यक्तिगत सुख का संकल्प घटते ही आपकी विशालता बढ़ेगी। आपको अपने-आप सुख मिलेगा।
या वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति।
जो नितान्त छोटे हैं, वे व्यक्तिगत सुख के लिए उलझते हैं। जो उनसे थोड़े विकसित हैं वे परिवार के सुख का यत्न करते हैं। उनसे और थोड़े विकसित हैं वे पड़ोस के सुख का यत्न करते है। उनसे भी जो विकसित हैं वे क्रमशः तहसील के सुख का, राज्य के सुख का, राष्ट्र के सुख का और विश्व के सुख का यत्न करते है। उन सबसे जो अधिक विकसित हैं वे विश्वेश्वरस्वरूप में टिकने का प्रयत्न करते हैं। अपने विचारों का दायरा जितना बड़ा होगा, उतनी ही वृत्तियाँ विशाल होंगी। वृत्तियाँ जितनी विशाल होंगी, उतना ही आदमी सुखी होगा। वृत्तियाँ जितनी संकीर्ण होंगी, उतना ही आदमी दुःखी होगा। कुटुम्ब में भी जो व्यक्ति व्यक्तिगत संकीर्णता में जीता है उसका आदर नहीं होता। कुटुम्ब के दायरे  में जो जीता है, कुटुम्ब उसका आदर करता है। समाज के दायरे में  जो जीता है तो समाज उसका आदर करता है। जो विश्व का मंगल सोचता है, विश्व कल्याण में प्रवृत्त है वह विश्व की किसी भी जगह पर जाय तो उसकी सेवा करनेवाले, उसको सहयोग और सहकार देनेवाले लोग उसको प्राप्त हो जाते हैं। जैसे स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ आदि महापुरूष।
हमारी वृत्तियों का दायरा जितना-जितना बड़ा, उतना ही हमारा सुख बड़ा।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’


ब्रह्मविचार-प्रधान सत्संग


ब्रह्मविचार-प्रधान जो सत्संग है, वह सत्संग जैसे-तैसे नहीं मिलता। अनधिकारी आदमी उस सत्संग में बैठ नहीं सकता। जिसका जप, तप, सेवा, पूजा, कुछ-न-कुछ उस अन्तर्यामी परमात्मा को, ईश्वर को स्वीकार हो गया है वही आदमी सदगुरू की प्राप्ति कर सकता है, सत्संगति की प्राप्ति कर सकता है। अन्यथा उसको कथा अथवा कहानियाँ, चुटकुले ही मिलकर रह जाएँगे। कथा-वार्ता तो साधारण आदमी को भी मिल जाती है। लेकिन सत्स्वरूप परमात्मा का संग हो जाये, बोध हो जाय ऐसा सत्संग मिलना दुर्लभ है।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य - ‘सहज साधना’

संत की सेवा

संत-महात्मा-सदगुरू की सेवा बड़े भाग्य से मिलती है। अभागे आदमी को तो संत की सेवा मिलती ही नहीं। उसे संत दर्शन की रूचि भी नहीं होती।
तुलसी पूर्व के पाप से हरिचर्चा न सुहाय।
कोई पुण्यात्मा है कि दुरात्मा, इसकी कसौटी करना है तो उसे ले जाओ किसी सच्चे संतपुरूष के पास। अगर वह आता है तो तुम उसे जितना पापी समझते हो उतना वह पापी नहीं है। अगर नहीं आता है तो तुम उसे जितना धर्मात्मा मानते हो उतना वह धर्मात्मा नहीं है। शास्त्रवेत्ता कहते हैं कि सात जन्म के पुण्य जब जोर मारते हैं तब संत-दर्शन की इच्छा होती है।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

अभ्यास में योग को मिला दो

अभ्यास तो सब करते हैं। झाडू लगाने का अभ्यास नौकरानी भी करती है और मतंग ऋषि के आश्रम में शबरी भी करती है। रोटी बनाने का अभ्यास बावर्ची भी करता है, माँ भी करती है और गुरू के आश्रम में शिष्य भी करता है। बावर्ची का रोटी बनाना नौकरी हो जाता है, माँ का रोटी बनाना सेवा हो जाती है और शिष्य का रोटी बनाना भक्ति हो जाती है। नौकरानी का झाड़ू लगाना नौकरी हो जाती है और शबरी का झाड़ू लगाना बन्दगी हो जाती है।
अभ्यास तो हम करते हैं लेकिन अभ्यास में योग को मिला दो। जिस अभ्यास का प्रयोजन ईश्वर प्राप्ति है, इष्ट की प्रसन्नता है, सदगुरू की प्रसन्नता है वह अभ्यास योग हो जाता है। जिस अभ्यास का प्रयोजन विकारों की तृप्ति है, वह अभ्यास संसार हो जाता है।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

सेवाभगत और मेवाभगत


भगवान बुद्ध ने एक बार घोषणा की किः
"अब महानिर्वाण का समय नजदीक आ रहा है। धर्मसंघ के जो सेनापति हैं, कोषाध्यक्ष हैं, प्रचार मंत्री हैं, व्यवस्थापक हैं तथा अन्य सब भिक्षुक बैठे हैं उन सबमें से जो मेरा पट्टशिष्य होना चाहता हो, जिसको मैं अपना विशेष शिष्य घोषित कर सकूँ ऐसा व्यक्ति उठे और आगे आ जाये।"
बुद्ध का विशेष शिष्य होने के लिए कौन इन्कार करे ? सबके मन में हुआ कि भगवान का विशेष शिष्य बनने से विशेष मान मिलेगा, विशेष पद मिलेगा, विशेष वस्त्र और भिक्षा मिलेगी।
एक होते हैं मेवाभगत और दूसरे होते हैं सेवाभगत। गुरू का मान हो, यश हो, चारों और बोलबाला हो तब तो गुरू के चेले बहुत होंगे। जब गुरू के ऊपर कीचड़ उछाला जायेगा, कठिन समय आयेगा तब मेवाभगत पलायन हो जाएँगे, सेवाभगत ही टिकेंगे।
बुद्ध के सामने सब मेवाभगत सत्शिष्य होने के लिये अपनी ऊँगली एक के बाद एक उठाने लगे। बुद्ध सबको इन्कार करते गये। उनको अपना विशेष उत्तराधिकारी होने के लिए कोई योग्य नहीं जान पड़ा। प्रचारमंत्री खड़ा हुआ। बुद्ध ने इशारे से मना किया। कोषाध्यक्ष खड़ा हुआ। बुद्ध राजी नहीं हुए। सबकी बारी आ गई फिर भी आनन्द नहीं उठा। अन्य भिक्षुओं ने घुस-पुस करके समझाया कि भगवान के संतोष के खातिर तुम उम्मीदवार हो जाओ मगर आनन्द खामोश रहा। आखिर बुद्ध बोल उठेः
"आनन्द क्यों नहीं उठता है ?"
आनन्द बोलाः "मैं आपके चरणों में आऊँ तो जरूर, आपके कृपापात्र के रूप में तिलक तो करवा लूँ लेकिन मैं आपसे चार वरदान चाहता हूँ। बाद में आपका सत्शिष्य बन पाऊँगा।"
"वे चार वरदान कौन-से हैं ?" बुद्ध ने पूछा।
"आपको जो बढ़िया भोजन मिले, भिक्षा ग्रहण करने के लिए निमंत्रण मिले उसमें मेरा प्रवेश न हो। आपका जो बढ़िया विशेष आवास हो उसमें मेरा निवास न हो। आपको जो भेंट-पूजा और आदर-मान मिले उस समय मैं वहाँ से दूर रहूँ। आपकी जहाँ पूजा-प्रतिष्ठा होती हो वहाँ मुझे आपके सत्शिष्य के रूप मे घोषित न किया जाए। इस ढंग से रहने की आज्ञा हो तो मैं सदा के लिए आपके चरणों में अर्पित हूँ।"
आज भी लोग आनन्द को आदर से याद करते हैं।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

व्यवहारिक वेदान्त

तुम्हारे सामने जो व्यक्ति आ जाय वह बढ़िया है। तुम्हारे सामने जो काम आ जाय वह बढ़िया है और तुम्हारे सामने में जो समय है वर्त्तमान, वह बढ़िया है।"
जिस समय तुम जो काम करते हो उसमें अपनी पूरी चेतना लगाओ, दिल लगाओ। टूटे हुए दिल से काम न करो। लापरवाही से काम न करो, पलायनवादी होकर न करो। उबे हुए, थके हुए मन से न करो। हरेक कार्य को पूजा समझकर करो। हनुमानजी और जाम्बवान युद्ध करते थे तो भी राम जी की पूजा समझकर करते थे। तुम जिस समय जो काम करो उसमें पूर्ण रूप से एकाग्र हो जाओ। काम करने का भी आनन्द आयेगा और काम भी बढ़िया होगा। जो आदमी काम उत्साह से नहीं करता, काम को भटकाता है उसका मन भी भटकने वाला हो जाता है। फिर भजन-ध्यान के समय भी मन भटकाता रहता है। इसलिए,

Work  while you work and play while you play, that is the way to be happy and gay.

जिस समय जो काम करो, बड़ी सूक्ष्मदृष्टि से करो, लापरवाही नहीं, पलायनवादिपना नहीं। जो काम करो, सुचारू रूप से करो। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय काम करो। कम-से-कम समय लगे और अधिक से अधिक सुन्दर परिणाम मिले इस प्रकार काम करो। ये उत्तम कर्त्ता के लक्षण हैं।
जिस समय जो व्यक्ति जो सामने आ जाय उस समय वह व्यक्ति श्रेष्ठ है ऐसा समझकर उसके साथ व्यवहार करो। क्योंकि श्रेष्ठ में श्रेष्ठ परमात्मा उसमें है न ! इस प्रकार की दृष्टि आपके स्वभाव को पवित्र कर देगी।
यह व्यवहारिक वेदान्त है।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

क्या बढ़िया ?

राजा सुषेण को विचार आया कि, "मैं किसी जीवन के रहस्य समझने वाले महात्मा की शरण में जाऊँ। पण्डित लोग मेरे मन का सन्देह दूर नहीं कर सकते।"
राजा सुषेण गाँव के बाहर महात्मा के पास पहुँचा। उस समय महात्मा अपनी बगीची में खोदकाम कर रहे थे, पेड़-पौधे लगा रहे थे। राजा बोलाः
"बाबाजी ! मैं कुछ प्रश्न पूछने को आया हूँ।"
बाबाजी बोलेः "मुझे अभी समय नहीं है। मुझे अपनी बगीची बनानी है।"
राजा ने सोचा कि बाबाजी काम कर रहे हैं और हम चुपचाप बैठें, यह ठीक नही। राजा ने भी कुदाली फावड़ा चलाया।
इतने में एक आदमी भागता-भागता आया और आश्रम में शरण लेने को घुसा और गिर पड़ा, बेहोश हो गया। महात्मा ने उसको उठाया। उसके सिर पर चोट लगी थी। महात्मा ने घाव पोंछा, जो कुछ औषधि थी, लगाई। राजा भी उसकी सेवा में लग गया। वह आदमी होश में आया। सामने राजा को देखकर चौंक उठाः
"राजा साहब ! आप मेरी चाकरी में ? मैं क्षमा माँगता हूँ....।" वह रोने लगा।
राजा ने पूछाः "क्यों, क्या बात है ?"
"राजन् ! आप राज्य में से एकान्त में गये हो ऐसा जानकर आपकी हत्या करने पीछे पड़ा था। मेरी बात खुल गई और आपके सैनिकों ने मेरा पीछा किया, हमला किया। मैं जान बचाकर भागा और इधर पहुँचा।"
महात्मा ने राजा से कहाः "इसको क्षमा कर दो।"
राजा मान गया। उस आदमी को दूध पिलाकर महात्मा ने रवाना कर दिया। फिर दोनों वार्तालाप करने बैठे। राजा बोलाः
"महाराज ! मेरे तीन प्रश्न हैं- सबसे उत्तम समय कौन-सा है ? सबसे बढ़िया काम कौन-सा है ? और सबसे बढ़िया व्यक्ति कौन सा है ? ये तीन प्रश्न मेरे दिमाग में कई महीनों से घूम रहे हैं। आपके सिवाय उनका समाधान देने की क्षमता किसी में भी नहीं है। आप पारावार-दृष्टि हैं, आप आत्मज्ञानी हैं, आप जीवन्मुक्त हैं, महाराज ! आप मेरे प्रश्नों का समाधान कीजिए।
महात्मा बोलेः "तुम्हारे प्रश्नों का जवाब तो मैंने सप्रयोग दे दिया है। फिर भी सुनः सबसे महत्त्वपूर्ण समय है वर्त्तमान, जिसमें तुम जी रहे हो। उससे बढ़िया समय आयेगा तब कुछ करेंगे या बढ़िया समय था तब कुछ कर लेते। नहीं.... अभी जो समय है वह बढ़िया है।
सबसे बढ़िया काम कौन-सा ? जिस समय जो काम सामने आ जाय वह बढ़िया।
उत्तम से उत्तम व्यक्ति कौन ? जो तुम्हारे सामने हो, प्रत्यक्ष हो वह सबसे उत्तम व्यक्ति है।
राजा असंमजस में पड़ गया। बोलाः
"बाबाजी ! मैं समझा नहीं।"
बाबाजी ने समझायाः "राजन् ! सबसे महत्त्वपूर्ण समय है वर्त्तमान। वर्त्तमान समय का तुमने आज सदुपयोग नहीं किया होता, तुम यहाँ से तुरन्त वापस चल दिये होते तो कुछ अमंगल घटना घट जाती। यहाँ जो आदमी आया था उसका भाई युद्ध में मारा गया था। उसका बदला लेने के लिए वह तुम्हारे पीछे लगा था। मैं काम में लगा था और तुम भी अपने वर्त्तमान का सदुपयोग करते हुए मेरे साथ लग गये तो वह बेला बीत गई। तुम बच गये।
सबसे बढ़िया का क्या ? जो सामने आ जाये वह काम सबसे बढ़िया। आज तुम्हारे सामने यह बगीची का काम आ गया और तुम कुदाली-फावड़ा लेकर लग गये। वर्त्तमान समय का सदुपयोग किया। स्वास्थ्य सँवारा। सेवाभाव से करने के कारण दिल को भी सँवारा। पुण्य भी अर्जित किया। इसी काम ने तुम्हें दुर्घटना से बचा लिया।
बढ़िया में बढ़िया व्यक्ति कौन ? जो सामने प्रत्यक्ष हो। उस आदमी के लिए अपने दिल में सदभाव लाकर सेवा की, प्रत्यक्ष सामने आये हुए आदमी के साथ यथायोग्य सदव्यवहार किता तो उसका हृदय-परिवर्तन हो गया, तुम्हारे प्रति उसका वैरभाव धुल गया।
इस प्रकार तुम्हारे सामने जो व्यक्ति आ जाय वह बढ़िया है। तुम्हारे सामने जो काम आ जाय वह बढ़िया है और तुम्हारे सामने में जो समय है वर्त्तमान, वह बढ़िया है।"

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

अनासक्तियोग

जिस समय जो शास्त्र-मर्यादा के अनुरूप कर्त्तव्य मिल जाय उस समय वह कर्त्तव्य अनासक्त भाव से ईश्वर की प्रसन्नता के निमित्त किया जाय तो वह पुण्य है। घर में महिला को भोजन बनाना है तो 'मैं साक्षात् मेरे नारायण को खिलाऊँगी' ऐसी भावना से बनायगी तो भोजन बनाना पूजा हो जायगा। झाड़ू लगाना है तो ऐसे चाव से लगाते रहो और चूहे की नाँई घर में भोजन बनाते रहो, कूपमण्डूक बने रहो। सत्संग भी सुनो, साधन भी करो, जप भी करो, ध्यान भी करो, सेवा भी करो और अपना मकान या घर भी सँभालो। जब छोड़ना पड़े तब पूरे तैयार भी रहो छोड़ने के लिए। अपने आत्मदेव को ऐसा सँभालो। किसी वस्तु में, व्यक्ति में, पद में आसक्ति नहीं। सारा का सारा छोड़ना पड़े तो भी तैयार। इसी को बोलते हैं अनासक्तियोग।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

चाहरहित शिष्य

सच्चा साधक, सत्शिष्य प्रतिष्ठा या सुविधा नहीं चाहता। वह तो सेवा के लिए ही सेवा करता है। सेवा से जो सुख और प्रतिष्ठा स्थायी बनती है वह सुख और प्रतिष्ठा चाहनेवालों के भाग्य में कहाँ से ? वह तो चाहरहित शिष्य को ही प्राप्त होती है।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

निष्काम कर्म करने पर फिर नितान्त एकान्त की आवश्यकता

विषय सुख की लोलुपता आत्मसुख प्रकट नहीं होने देती। सुख की लालच और दुःख के भय ने अन्तःकरण को मलिन कर दिया। तीव्र विवेक-वैराग्य हो, अन्तःकरण के साथ का तादात्म्य तोड़ने का सामर्थ्य हो तो अपने नित्य, मुक्त, शुद्ध, बुद्ध, व्यापक चैतन्य स्वरूप का बोध हो जाय। वास्तव में हम बोध स्वरूप हैं लेकिन शरीर और अन्तःकरण के साथ जुड़े हैं। उस भूल को मिटाने के लिए, सुख की लालच को मिटाने के लिए, दुःखियों के दुःख से हृदय हराभरा होना चाहिए। जो योग में आरूढ़ होना चाहता है उसे निष्काम कर्म करना चाहिए। निष्काम कर्म करने पर फिर नितान्त एकान्त की आवश्यकता है।
आरुरुक्षार्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।
'योग में आरूढ़ होने की इच्छावाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्व संकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जाता है।'
(भगवद् गीताः 6.3)

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

निष्काम कर्म करने वाले की अनूठी रीति

जो निष्काम सेवा करता है उसे ही भक्ति मिलती है। जैसे हनुमान जी रामजी से कह सकते थेः "महाराज ! हम तो ब्रह्मचारी है। हमको योगध्यान या अन्य कोई भी मंत्र दे दीजिएहम जपा करें। पत्नी आपकी खो गयीअसुर ले गये फिर हम क्यों प्राणों की बाजी लगायें?"
किंतु हनुमानजी में ऐसी दुर्बुद्धि या स्वार्थबुद्धि नहीं थी। हनुमानजी ने तो भगवान राम के काम को अपना काम बना लिया। इसलिए प्रायः गाया जाता हैः राम लक्ष्मण जानकीजय बोलो हनुमान की।
'श्रीरामचरितमानस' का ही एक प्रसंग है जिसमें मैनाक पर्वत ने समुद्र के बीचोबीच प्रकट होकर हनुमानजी से कहाः "यहाँ विश्राम करें।"
किंतु हनुमानजी ने कहाः
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम।
(श्रीरामचरित. सुं.का. 1)
निष्काम कर्म करने वाला अपने जिम्मे जो भी काम लेता हैउसे पूरा करने में चाहे कितने ही विघ्न आ जायेंकितनी ही बाधाएँ आ जायेंनिंदा हो या संघर्षउसे पूरा करके ही चैन की साँस लेता है। निष्काम कर्म करने वाले की अपनी अनूठी रीति होती हैशैली होती है।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य - ‘कर्म का अकाट्य सिद्धांत’

श्रद्धा और हित के साथ गुरु की सेवा करना

यदि अपने गुरु के प्रति भक्ति हो तो वे बतायेंगे कि, बेटा ! तुम गलत रास्तें से जा रहे हो। इस रास्ते से मत जाओ। उसको ज्यादा मत देखो, उससे ज्यादा बात मत करो, उसके पास ज्यादा मत बैठो, उससे मत चिपको, अपनी 'कम्पनी' अच्छी रखो, आदि।
जब गुरु के चरणों में तुम्हारा प्रेम हो जायगा तब दूसरों से प्रेम नहीं होगा। भक्ति में ईमानदारी चहिए, बेईमानी नहीं। बेईमानी सम्पूर्ण दोषों की व दुःखों की जड़ है। सुगमता से दोषों और दुःखों पर विजय प्राप्त करने का उपाय है ईमानदारी के साथ, सच्चाई के साथ, श्रद्धा के साथ और हित के साथ गुरु की सेवा करना।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

भक्ति का फल

निःस्वार्थता से आदमी की अंदर की आँखें खुलती हैं जबकि स्वार्थ से आदमी की विवेक की आँख मुँद जाती हैवह अंधा हो जाता है। रजोगुणी या तमोगुणी आदमी का विवेक क्षीण हो जाता है और सत्त्वगुणी का विवेकवैराग्य व मोक्ष का प्रसाद अपने-आप बढ़ने लगता है। आदमी जितना निःस्वार्थ कार्य करता है उतना ही उसके संपर्क में आनेवालों का हित होता है और जितना स्वार्थी होता उतना ही अपनी ओर अपने कुटुंबियों की बरबादी करता है। कोई पिता निःस्वार्थ भाव से संतों की सेवा करता है और यदि संत उच्च कोटि के होते हैं और शिष्य की सेवा स्वीकार कर लेते हैं तो फिर उसके पुत्र-पौत्र सभी को भगवान की भक्ति का सुफल सुलभ हो जाता है। भक्ति का फल प्राप्त कर लेना हँसी का खेल नहीं है।
भगवान के पास एक योगी पहुँचा। उसने कहाः भगवान ! मुझे भक्ति दो।"
भगवानः "मैं तुम्हे ऋद्धि-सिद्धि दे दूँ। तुम चाहो तो तुम्हें पृथ्वी के कुछ हिस्से का राज्य ही सौंप दूँ मगर मुझसे भक्ति मत माँगो।"
"आप सब देने को तैयार हो गये और अपनी भक्ति नहीं देते होआखिर ऐसा क्यों?"
"भक्ति देने के बाद मुझे भक्त के पीछे-पीछे घूमना पड़ता है।"
निष्काम कर्म करनेवाले व्यक्तियों के कर्म भगवान या संत स्वीकार कर लेते हैं तो उसके बदले में उसके कुल को भक्ति मिलती है। जिसके कुल को भक्ति मिलती है उसकी बराबरी धनवान भी नहीं कर सकता। सत्तावाला भला उसकी क्या बराबरी करेगा?

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘कर्म का अकाट्य सिद्धांत’

हम किसकी शरण हैं ?

भगवान का जप करते हैं लेकिन फल क्या पाना चाहते हैं? संसार। तो वे संसार के शरण हैं। माला घुमा रहे हैं नौकरी के लिए, जप कर रहे हैं शादी के लिए, ध्यान-भजन-स्मरण कर रहे हैं नश्वर चीजों के लिए, नश्वर कीर्ति के लिए। तो हम भगवान के शरण नहीं हैं, नश्वर के शरण हैं। अगर हमारा जप-ध्यान-अनुष्ठान पद-प्रतिष्ठा पाने के लिए है, व्यक्तित्व के शृंगार के लिए है तो हम भगवान के शरण नहीं हैं, शरीर के शरण हैं। 'हमें कोई महंत कह दे, हम ऐसा जियें कि हमारे महंतपद का प्रभाव पड़े, हम संत होकर जियें, साँई होकर जियें, लोगों पर प्रभाव छोड़ जायें, हम सेठ होकर जियें, साहूकार होकर जियें' – इस प्रकार की वासना भीतर है और हम भगवान की सेवा-पूजा-उपासना-आराधना करते हैं तो हम भगवान के शरण नहीं हैं। भगवान को अपनी इच्छापूर्ति का साधन बना दिया। हम शरण हैं माया के।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

हम सेवा करने वाले कौन होते हैं?

वास्तव में देखा जाये तो पुण्य करने वाले हम कौन होते हैं? परमात्मा पुण्य करवा रहा है। दान करने वाले हम कौन होते हैं? वह करवा रहा है। हम सेवा, जप करने वाले कौन होते हैं?हमारा तो अपना कुछ है ही नहीं।
एक लड़के ने माँ को कहाः "माँ ! तेरा ऋण चुकाने के लिए तन-मन-धन से सेवा करूँ। मेरे हृदय में तो आता है कि माँ, मेरी चमड़ी से तेरे चरणों की मोजड़ी बनवा दूँ।"
सुनकर माँ हँस पड़ीः "बेटा ! ठीक है। तेरी भावना है, मेरी सेवा हो गई। बस मैं संतुष्ट हूँ।"
"माँ तू हँसी क्यों?"
"बेटा ! तू कहता है कि मेरी चमड़ी से तेरी मोजड़ी बनवा दूँ। लेकिन यह चमड़ा तू कहाँ से लाया? यह चमड़ा भी तो माँ का दिया हुआ है।"
ऐसे ही यदि हम कहें किः 'हे प्रभु ! तेरे लिए मैं प्राणों का त्याग कर सकता हूँ, तेरे लिए घर-बार छोड़ सकता हूँ, तेरे लिए पत्नी-परिवार छोड़ सकता हूँ, तेरे लिए संसार छोड़ सकता हूँ....।' लेकिन घर-बार, संसार-परिवार लाये कहाँ से? उसी प्रभु का ही तो था। तुमने छोड़ा क्या? तुमने केवल उसको आदर देते हुए अपना अन्तःकरण पवित्र किया, वरना तुम्हारा तो कुछ था ही नहीं। जैसे बेटे का अपना चमड़ा है ही नहीं, माँ का दिया हुआ है वैसे ही जीव का अपना कुछ है ही नहीं। सब कुछ ईश्वर का ही है। लेकिन जीव मान लेता है कि, 'यह मेरा है... भगवान ! तुझे देता हूँ। मैंने इतना किया, उतना किया... अब तू कृपा कर।'

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