निष्काम गुरूसेवा


वैदिक काल में सुभाष नाम का एक विद्यार्थी अपने गुरू के चरणों में विद्याध्ययन करने गया। विद्या तो पढ़ता था, लेकिन गुरूजी की अंगत सेवा में अधिक लग गया। ऐसी सेवा की, ऐसी सेवा की कि गुरूजी का दिल जीत लिया। विद्योपार्जन करके जब घर लौट रहा था, तब गुरूजी ने कहाः
"बेटा ! तूने मेरा दिल जीत लिया है। हम तो ठहरे साधारण साधू। हमारे पास कोई धन-वैभव, राज-सत्ता नहीं कि तुझे कुछ दे सकें। वत्स ! तेरा कल्याण हो !" ऐसा करके प्यारे शिष्य को छाती से लगा लिया। फिर अपनी छाती से एक बाल उखाड़कर उसे देते हुए बोलेः
"बेटा ! ले, यह प्रसाद के रूप में सँभालकर रखना। जब तक यह तेरे पास रहेगा, तब तक तुझे धन-वैभव-लक्ष्मी की चिन्ता नहीं रहेगी।"
"गुरूदेव! आपने तो मुझे सब कुछ पहले से ही दे दिया है।"
"सो तो है, लेकिन यह भी रख ले।"
सुभाष ने बड़े आदर से वह बाल अपने पास रखा। हर रोज उसकी सेवा-पूजा करने लगा। उसके घर में सुख-शान्ति और समृद्धि का साम्राज्य छा गया।
सुभाष के पड़ोसी ने देखा कि यह भी पढ़कर आया है और मैं भी पढ़कर आया हूँ। उससे भी अधिक पढ़ा हूँ। लेकिन इसके पास इतना वैभव और मेरे पास कुछ नहीं ? इसके पास धन छनाछन और मैं हूँ ठनठनपाल ? इसका सर्वत्र मान हो रहा है और मुझको कोई पूछता तक नहीं ? ऐसा क्यों ?
पड़ोसी ने सुभाष से पूछा। सुभाष तो रहा सज्जन, सरल हृदयवाला। उसने बता दिया किः "यह सब गुरूजी की कृपा है। मैंने उनकी हृदयपूर्वक सेवा की, उनकी कृपा प्राप्त की। मै विदा हुआ तो उन्होंने अपनी छाती का बाल मुझे दिया। मैं रोज उसकी पूजा करता हूँ। यह सब उन्हीं का दिया हुआ है।"
पड़ोसी ने सुभाष के गुरूजी का पता पूछ लिया और पहुँच गया वहाँ। प्रणाम करके बोलाः
"गुरूजी ! मै सुभाष के पड़ोस में रहता हूँ। आपका नाम सुनकर आया हूँ।"
"ठीक है।" गुरूजी बोले।
"गुरू जी महाराज ! आपकी सेवा करूँगा।"
"कोई सेवा नहीं है।"
उसके भीतर तो धन-वैभव पाने की कामना खदबदा रही थी। उसकी सेवा में क्या बरकत होगी ? आश्रम में इधर-उधर उछल कूद की, थोड़ा-बहुत दिखावटी काम किया। शाम हुई तो गुरूजी से बोलाः
"गुरूजी ! आप दयालु हैं। सुभाष को धन्य किया है। मुझ पर भी कृपा करो। मेरी इच्छा भी पूरी करो।"
"क्या इच्छा पूरी करें।?"
"मुझे भी अपना बाल उखाड़कर दो।"
"अरे भाई ! उसका तो कोई प्रारब्ध जोर मार रहा था, इसलिए ऐसा हुआ। हम कोई चमत्कार करनेवाले नहीं हैं।"
उस आदमी ने सोचा कि कैसा भी हो, गुरूजी की छाती के इतने छोटे-से बाल में इतनी शक्ति है तो जटाओं के लम्बे-लम्बे बालों  में कितनी शक्ति होगी ? वह उठा और गुरूजी की जटाओं में हाथ डाला। चार-पाँच बाल खींचकर भागा।
कामनावाला व्यक्ति अन्धा हो जाता है। काम और सुख-भोग के संकल्प उसकी बुद्धि का दिवाला निकाल देते हैं।
गुरूजी ने कहाः "तुझे बाल इतने प्यारे हैं तो जा, तुझे बाल-ही-बाल मिलेंगे।"
वह घर गया। भोजन करने बैठे तो थाली में बाल। पूजा करने बैठे तो बाल। परेशान हो गया। उसकी हालत ऐसी कैसे बनी ? काम और संकल्प की आधीनता से। सुभाष सुखी कैसे बना? काम और संकल्परहित होकर गुरूसेवा में तन्मय होने से। काम और संकल्प की निवृत्ति की तो धन, मान, यश, सुख और शांति उसके पीछे-पीछे आयी।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

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