आज कुछ सेवा की ?

क्या तुमने आज किसी की कुछ सेवा की हैयदि नहीं तो आज का दिन तुमने व्यर्थ खो दिया।
 यदि किसी की कुछ सेवा की है तो सावधान रहो, मन में कहीं अहंकार न आ जाय।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘अमृत के घूँट’

नमस्कार की महिमा

प्रतिदिन सुबह-शाम माता-पिता एवं गुरुजनों के चरणों में प्रणाम करना चाहिए। नमस्कार की बड़ी महिमा है।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य बर्द्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।।
जो प्रतिदिन बड़ों की सेवा करता है, उनके चरणों में प्रणाम करता है एवं उनकी सीख के अनुसार चलता है उसकी आयुष्य, विद्या, यश एवं बल चारों बढ़ते हैं।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘आंतर ज्योत’

सत्पुरुषों की सेवा करने से चित्त निर्मल

श्री वशिष्ठजी कहते हैं- "हे रामचंद्र जी !  जैसे कसौटी पर कसने से स्वर्ण अपनी निर्मलता प्रगट कर देता है वैसे ही शुभकर्म या पुण्यकर्म करने से तथा सत्पुरुषों की सेवा करने से चित्त निर्मल हो जाता है। 

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘आंतर ज्योत’

व्याधियों को दूर करने में साधुसेवा सहायक

इन्द्रियों का स्वामी मन है। मन का स्वामी प्राण है। प्राण यदि क्षुभित होते हैं तो नाड़ियाँ अपनी कार्यक्षमता खो बैठती हैं, जिससे व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। ऐसी व्याधियों को दूर करने में मंत्रजाप, साधुसेवा, पुण्यकर्म, तीर्थस्नान, प्राणायाम, ध्यान, सत्कृत्य आदि सहायक है। इनसे आधियाँ दूर होती हैं एवं आधियों के दूर होने से उनसे उत्पन्न व्याधियां भी मिट जाती हैं।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘आंतर ज्योत’

चिदानन्दमय देह तुम्हारी विगत विकार कोई जाने अधिकारी

कई लोग कहते हैं कि 'गुरु तो तत्त्व हैं, गुरु तो चिन्मयवपु हैं।' गुरु तत्त्व हैं तो गुरु का शरीर क्या भूत है?
चिदानन्दमय देह तुम्हारी विगत विकार कोई जाने अधिकारी।
जब सब ब्रह्म है, व्यक्त और अव्यक्त ब्रह्म है, तो उड़िया बाबा की देह अब्रह्म है क्या?
गुरु को केवल तत्त्व मानकर घर में ही प्रणाम कर लेते हैं, गुरु के पास जाना टालते हैं वे लोग अपने आपसे धोखा करते हैं। उनका अहं बचने की कोशिश करता है। गुरु के सामने झुकने में डर लगता है।
'ऐसी कौन सी जगह है जहाँ गुरु नहीं है?' – ऐसा कहकर लोग घर में ही बैठे रहते हैं। वासनाओं को पोषने का यह एक ढंग है। पत्नी के बिस्तर पर जायेंगे लेकिन गुरु के आश्रम में नहीं जायेंगे।
गुरु को केवल तत्त्व मानकर उनकी देह का अनादर करेंगे तो हम निगुरे रह जायेंगे। जिस देह में वह तत्त्व प्रकट होता है वह देह भी चिन्मय आनंदस्वरूप हो जाती है।
समर्थ रामदास का आनंद नामक एक शिष्य था। वे उसको बहुत प्यार करते थे। अन्य शिष्यों को यह देखकर ईर्ष्या होने लगी। वे सोचतेः 'हम भी शिष्य हैं। हम भी गुरुदेव की सेवा करते हैं फिर भी गुरुदेव हमसे ज्यादा प्यार आनन्द को देते हैं।'
एक बार समर्थ रामदास ने एक युक्ति की। अपने पैर में एक कच्चा आम बाँधकर ऊपर कपड़े की पट्टी लगा दी। फिर पीड़ा से चिल्लाने लगेः "पैर में फोड़ा निकला है.... बहुत पीड़ा करता है... आह...! ऊह...!"
कुछ दिनों में आम पक गया और उसका पीला रस बहने लगा। गुरुजी पीड़ा से ज्यादा कराहने लगे। सब शिष्यों को बुलाकर कहाः
"अब फोड़ा पक गया है, फट गया है। उसमें से मवाद निकल रहा है। मैं पीड़ा से मरा जा रहा हूँ। कोई मेरी सेवा करो। यह फोड़ा अपने मुँह से कोई चूस ले तो मिट सकता है।"
सब शिष्य एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। बहाने बना-बनाकर एक-एक करके सब खिसकने लगे। शिष्य आनंद को पता चला। वह तुरन्त आया और गुरुदेव के पैर को अपना मुँह लगाकर फोड़े का मवाद चूसने लगा। गुरुदेव का हृदय भर आया। बोलेः "बस.... आनंद! बस। मेरी पीड़ा चली गई।" मगर आनन्द ने कहाः
"गुरुजी ! अब क्या छोड़ूँ? ऐसा माल मिल रहा है फिर छोड़ूँ कैसे?"
ईर्ष्या करने वाले शिष्यों के चेहरे फीके पड़ गये।
बाहर से फोड़ा दिखते हुए भी भीतर से आम का रस है। ऐसे ही बाहर से फोड़े जैसे दिखनेवाले गुरुदेव के शरीर से आत्मा का रस टपकता है। महावीर के समक्ष बैठने वालों को पता है कि क्या टपकता है महावीर के सान्निध्य में बैठने से। संत कबीर के इर्द-गिर्द बैठनेवालों को पता है, श्रीकृष्ण के साथ खेलनेवाले ग्वालों और गोपियों को पता है कि उनके सान्निध्य में क्या बरसता है।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘अलख की ओर’

सेवा में प्रेम

पूजा-उपासना का लक्ष्य यदि परमात्म-प्राप्ति नहीं है और पुजारी होकर 300 रूपये की नौकरी करते रहे, मूर्ति की सेवा-पूजा करते रहे तो भी जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मूर्ति की सेवा-पूजा-उपासना में यदि प्रेम है, भावना है, लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति का है तो वह उपासना खण्ड की होते हुए भी हृदय में अखण्ड चैतन्य की धारा का स्वाद दे देगी। मूर्ति में भी अखण्ड चैतन्य की चमक देखते हैं तो जीवन उपासनामय बन जाता है।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘अलख की ओर’

भजन माने क्या ?

भजन माने क्या ? जिस कर्म से, जिस श्रवण से, जिस चिन्तन से, जिस जप से, जिस सेवा से भगवदाकार वृत्ति बने उसे भजन कहा जाता है।
संसार की आसक्ति मिटाने के लिए भजन की आसक्ति अत्यंत आवश्यक है। सारे ज्ञानों व बलों का जो आधार है वह आत्मबल व आत्मज्ञान पाना ही जीवन का उद्देश्य हो। जीवन का सूर्य ढलने से पहले जीवनदाता में प्रतिष्ठित हो जाओ, अन्यथा पछताना पड़ेगा। असफलता और दुर्बलता के विचार उठते ही उसे भगवन्नाम से और पावन पुस्तकों के अध्ययन से हटा दिया करो।
अय मानव ! ऊठ.... जाग...। अपनी महानता को पहचान। कब तक भवाटवी में भटकेगा ? जो भगवान वैकुण्ठ में, कैलास में और ऋषियों के हृदय में है वही के वही, उतने के उतने तेरे पास भी हैं। ऊठ... जाग....। अपने प्यारे को पहचान। सत्संग करके बुद्धि को बढ़ा और परब्रह्म परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जा।
शाबाश वीर....! शाबाश.... हिम्मत... साहस....
जो कुछ कर, परमात्मा को पाने के लिए कर। यही तुझे परमात्मा में प्रतिष्ठित पुरूषों तक पहुँचा देगा और तू भी परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जायगा।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘आत्मयोग’

ऐसा मिला है कि कभी खूट नहीं सकता

हम जब सदगुरूदेव के पास गये थे तो शुरू में जरा कठिनाइयाँ थीं। मूँग उबालकर खा लेते। नगरसेठ का बेटा होकर झाड़ू लगाते, बर्तन माँजते, आश्रम में सेवा करते। गुरूदेव तो नहीं कहते लेकिन हम सेवा छीन लेते थे। आश्रम में लोग कभी आते थे तो रसोई के बड़े बर्तन भी होते थे। पहाड़ी पथरीली मिट्टी या कोयले की राख होती थी बर्तन माँजने के लिए। हाथ में चीरे पड़ जाते थे, खून निकलता था तो पट्टी बाँधकर बर्तन माँज लेते थे। उस समय देखने वालों को लगता होगा कि बड़ा दुःख भोग रहा है। लेकिन अब लगता है वाह ! ऐसा मिला है कि कभी खूट नहीं सकता। ऐसा रस दे दिया है गुरू की कृपा ने।
सात्त्विक सुख पहले जरा दुःख जैसा लगता है। बाद में उसका फल बड़ा मधुर होता है। राजसी सुख पहले सुखद लगता है लेकिन बाद में मुसीबत में डाल देता है। तामसी सुख में पहले भी परेशानी और बाद में भी परेशानी...घोर नर्क।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘आत्मयोग’

लक्ष्मीजी की प्राप्ति किसको?


देवकीनन्दन श्रीकृष्ण के समीप रुक्मणीदेवी ने लक्ष्मी जी से पूछाः त्रिलोकीनाथ भगवान नारायण की प्रियतमे ! तुम इस जगत में किन प्राणियों पर कृपा करके उनके यहाँ रहती हो? कहाँ निवास करती हो और किन-किनका सेवन करती हो? उन सबको मुझे यथार्थरूप से बताओ।

रुक्मणीजी के इस प्रकार पूछने पर चंद्रमुखी लक्ष्मीदेवी ने प्रसन्न होकर भगवान गरुड़ध्वज के सामने ही मीठी वाणी में यह वचन कहाः

लक्ष्मीजी बोलीं- देवि ! मैं प्रतिदिन ऐसे पुरुष में निवास करती हूँ, जो सौभाग्यशाली, निर्भीक, कार्यकुशल, कर्मपरायण, क्रोधरहित, देवाराधतत्पर, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय तथा बढ़े हुए सत्त्वगुण से युक्त हों।

जो पुरुष अकर्मण्य, नास्तिक, वर्णसंकर, कृतघ्न, दुराचारी, क्रूर, चोर तथा गुरुजनों के दोष देखनेवाला हो, उसके भीतर मैं निवास नहीं करती हूँ। जिनमें तेज, बल और सत्त्व की मात्रा बहुत थोड़ी हो, जो जहाँ तहाँ हर बात में खिन्न हो उठते हों, जो मन में दूसरा भाव रखते हैं और ऊपर कुछ और ही दिखाते हैं, ऐसे मनुष्यों में मैं निवास नहीं करती हूँ। जिसका अंतःकरण मूढ़ता से आच्छान्न है, ऐसे मनुष्यों में मैं भलीभाँति निवास नहीं करती हूँ।

जो स्वभावतः स्वधर्मपरायण, धर्मज्ञ, बड़े-बूढ़ों की सेवा में तत्पर, जितेन्द्रिय, मन को वश में रखने वाले, क्षमाशील और सामर्थ्यशाली हैं, ऐसे पुरुषों में तथा क्षमाशील और जितेन्द्रिय अबलाओं में भी मैं निवास करती हूँ। जो स्त्रियाँ स्वभावतः सत्यवादिनी तथा सरलता से संयुक्त हैं, जो देवताओं और द्विजों की पूजा करने वालीं, उनमें भी मैं निवास करती हूँ।


जो अपने समय को कभी व्यर्थ नहीं जाने देते, सदा दान और शौचाचार में तत्पर रहते हैं, जिन्हें ब्रह्मचर्य, तपस्या, ज्ञान, गौ और द्विज परम प्रिय हैं, ऐसे पुरुषों में मैं निवास करती हूँ। जो स्त्रियाँ, देवताओं तथा ब्राह्मणों की सेवा में तत्पर, घर के बर्तन-भाँडों को शुद्ध तथा स्वच्छ रखने वाली और गौओं की सेवा तथा धान्य के संग्रह में तत्पर होती हैं, उनमें भी मैं सदा निवास करती हूँ।

जो घर के बर्तनों को सुव्यवस्थित रूप से न रखकर इधर-उधर बिखेरे रहती हैं, सोच-समझकर काम नहीं करती हैं, सदा अपने पति के प्रतिकूल ही बोलती हैं, दूसरों के घरों में घूमने फिरने में आसक्त रहती हैं और लज्जा को सर्वथा छोड़ बैठती है, उनको मैं त्याग देती हूँ।

जो स्त्री निर्दयतापूर्वक पापाचार में तत्पर रहने वाली, अपवित्र, चटोर, धैर्यहीन, कलहप्रिय, नींद में बेसुध होकर सदा खाट पर पड़ी रहने वाली होती है, ऐसी नारी से मैं सदा दूर ही रहती हूँ।

जो स्त्रियाँ सत्यवादिनी और अपनी सौम्य वेश-भूषा के कारण देखने में प्रिय होती हैं, जो सौभाग्यशालिनी, सदगुणवती, पतिव्रता और कल्याणमय आचार-विचार वाली होती हैं तथा जो सदा वस्त्राभूषणों से सुसज्जित रहती हैं, ऐसी स्त्रियों में सदा निवास करती हूँ।

जहाँ हँसों की मधुर ध्वनि गूँजती रहती है, क्रौंच पक्षी के कलरव जिनकी शोभा बढ़ाते हैं, जो अपने तटों पर फैले हुए वृक्षों की श्रेणियों से शोभायमान हैं, जिनके किनारे तपस्वी, सिद्ध और ब्राह्मण निवास करते हैं, जिनमें बहुत जल भरा रहता है तथा सिंह और हाथी जिनके जल में अवगाहन करते रहते हैं, ऐसी नदियों में भी मैं सदा निवास करती रहती हूँ।

सत्पुरुषों में मेरा नित्य निवास है। जिस घर में लोग अग्नि में आहुति देते हैं, गौ, ब्राह्मण तथा देवताओं की पूजा करते हैं और समय-समय पर जहाँ फूलों से देवताओं को उपहार समर्पित किये जाते हैं, उस घर में मैं नित्य निवास करती हूँ। सदा वेदों के स्वाध्याय में तत्पर रहने वाले ब्राह्मणों, स्वधर्मपरायण क्षत्रियों, कृषि-कर्म में लगे हुए वैश्यों तथा नित्य सेवापरायण शूद्रों के यहाँ भी मैं सदा निवास करती हूँ।

मैं मूर्तिमति तथा अनन्यचित्त होकर तो भगवान नारायण में ही संपूर्ण भाव से निवास करती हूँ, क्योंकि उनमें महान धर्म सन्निहित है। उनका ब्राह्मणों के प्रति प्रेम है और उनमें स्वयं सर्वप्रिय होने का गुण भी है।

देवी ! मैं नारायण के सिवा अन्यत्र शरीर से नहीं निवास करती हूँ। मैं यहाँ ऐसा नहीं कह सकती कि सर्वत्र इसी रूप में रहती हूँ। जिस पुरुष में भावना द्वारा निवास करती हूँ, वह, धर्म, यश और धन से संपन्न होकर सदा बढ़ता रहता है।
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्यायः11)

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘पर्वों का पुंजः दीपावली’

दीपावली पर्व कैसे मनाएं

दीपावली के पर्व पर हम अपने परिचितों को मिठाई बाँटते हैं, लेकिन इस बार हम महापुरुषों के शांति, प्रेम, परोपकार जैसे पावन संदेशों को जन-जन तक पहुँचा कर पूरे समाज को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करेंगे, ऐसा संकल्प लें। इस पावन पर्व पर हम अपने घर के कूड़े-करकट को निकालकर उसे विविध प्रकार के रंगों से रँगते हैं। ऐसे ही हम अपने मन में भरे स्वार्थ, अहंकार तथा विषय-विकाररूपी कचरे को निकाल कर उसे संतों के सत्संग, सेवा तथा भक्ति के रंगों से रँग दें।
योगांग झाड़ू धर चित्त झाड़ोविक्षेप कूड़ा सब झाड़ काढ़ो।
अभ्यास पीता फिर फेरियेगाप्रज्ञा दिवाली प्रिय पूजियेगा।।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘पर्वों का पुंजः दीपावली’

माँ महँगीबा की निष्ठा


एक बार मैंने माँ से कहाः "आपको सोने में तौलेंगे।".... लेकिन उनके चेहरे पर हर्ष का कोई चिह्न नजर नहीं आया।
मैंने पुनः हिला हिलाकर कहाः "आपको सोने में तौलेंगे, सोने में !"
माँ- "यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता।"
मैंने कहाः "तुला हुआ सोना महिलाओं और गरीबों की सेवा में लगेगा।"
माँ- "हाँ... सेवा में भले लगे लेकिन मेरे को तौलना-वौलना नहीं।"
मगर सुवर्ण महोत्सव के पहले ही माँ की यात्रा पूरी हो गयी। बाद में सुवर्ण-महोत्सव के निमित्त जो भी करना था, वह किया ही।
मैंने कहाः "आपका मंदिर बनायेंगे।"
माँ- "यह सब कुछ नहीं करना है।"
मैं- "आपकी क्या इच्छा है ? हरिद्वार जायें ?"
माँ- "वहाँ तो नहाकर आये।"
मैं- "क्या खाना है ? यह खाना है ? (अलग-अलग चीजों के नाम लेकर)"
माँ- "मुझे अच्छा नहीं लगता।"
कई बार विनोद का समय मिलता तो हम माँ से उनकी इच्छा पूछते। मगर पूछ-पूछकर थक गये लेकिन उनकी कोई ख्वाहिश हमको कभी दिखी ही नहीं। अगर उनकी कोई भी इच्छा होती तो उनके इच्छित पदार्थ को लाने की सुविधा मेरे पास थी। किसी व्यक्ति से, पुत्र से, पुत्री से, कुटुम्बी से मिलने की इच्छा होती तो उनसे भी मिला देते। कहीं जाने की इच्छा होती तो वहाँ ले जाते लेकिन उनकी कोई इच्छा ही शेष नहीं थी।
न उनमें खाने की इच्छा थी, न कहीं जाने की, न किसी से मिलने की इच्छा थी, न ही यश-मान की.... जहाँ मान-अपमान सब स्वप्न है, उसमें उनकी स्थिति हो गयी थी, इसीलिए तो उन्हें इतना मान मिल रहा है।
इस प्रसंग से करोड़ों-करोड़ों लोगों को, समग्र मानव-जाति को जरूर प्रेरणा मिलती रहेगी।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘संत माता माँ महँगीबाजी के मधुर संस्मरण’


चित्त का निर्माण कीजिये

सारे जप, तप, सेवा, पूजा, यज्ञ, होम, हवन, दान, पुण्य ये सब चित्त को शुद्ध करते हैं, चित्त में पवित्र संस्कार भरते हैं। प्रतिदिन कुछ समय अवश्य निष्काम कर्म करना चाहिए। चित्त के कोष में कुछ आध्यात्मिकता की भरती हो। तिजोरी को भरने के लिए हम दिनरात दौड़ते हैं। जेब को भरने के लिए छटपटाते हैं लेकिन तिजोरी और जेब तो यहीं रह जायेंगे। हृदय की तिजोरी साथ में चलेगी। इस आध्यात्मिक कोष को भरने के लिए दिन भर में कुछ समय अवश्य निकालना चाहिए। संध्या-वन्दन, पूजा-प्रार्थना, ध्यान-जप, निष्काम कर्म इत्यादि के द्वारा चित्त का निर्माण कीजिये।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘आत्मयोग’

अन्तर्यामी भगवान को प्यार

भगवान को पदार्थ अर्पण करना, सुवर्ण के बर्तनों में भगवान को भोग लगाना, अच्छे वस्त्रालंकार से भगवान की सेवा करना यह सब के बस की बात नहीं है। लेकिन अन्तर्यामी भगवान को प्यार करना सब के बस की बात है। धनवान शायद धन से भगवान की थोड़ी-बहुत सेवा कर सकता है लेकिन निर्धन भी भगवान को प्रेम से प्रसन्न कर सकता है। धनवानों का धन शायद भगवान तक न भी पहुँचे लेकिन प्रेमियों का प्रेम तो परमात्मा तक तुरन्त पहुँच जाता है।

अपने हृदय-मंदिर में बैठे हुए अन्तरात्मारूपी परमात्मा को प्यार करते जाओ। इसी समय परमात्मा तुम्हारे प्रेमप्रसाद को ग्रहण करते जायेंगे और तुम्हारा रोम-रोम पवित्र होता जायगा। कल की चिन्ता छोड़ दो। बीती हुई कल्पनाओं को, बीती हुई घटनाओं को स्वप्न समझो। आने वाली घटना भी स्वप्न है। वर्त्तमान भी स्वप्न है। एक अन्तर्यामी अपना है। उसी को प्रेम करते जाओ और अहंकार को डुबाते जाओ उस परमात्मा की शान्ति में।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘आत्मयोग’

यदि .... तो ....

यदि आपमें अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प है तो प्रगति अवश्य होगी। विनय भाव से सदगुणों का विकास होगा। दूसरों की सेवा करने की सच्ची निःस्वार्थ धुन है तो हृदय अवश्य शुद्ध होगा। दृढ़ विश्वास है तो आत्म-साक्षात्कार अवश्य होगा। यदि सच्चा वैराग्य है तो ज्ञान निःसन्देह होगा। यदि अटूट धैर्य है तो शांति अवश्य मिलेगी। यदि सतत् प्रयत्न है तो विघ्न बाधाएँ अवश्य नष्ट होंगी। यदि सच्चा समर्पण है तो भक्ति अवश्य आ जायेगी। यदि पूर्ण निर्भरता है तो निरन्तर कृपा का अनुभव अवश्य होगा। यदि दृढ़ परमात्म-चिन्तन है तो संसार का चिन्तन अवश्य मिट जायेगा। यदि सदगुरु का दृढ़ आश्रय है तो बोध अवश्य होगा। जहाँ सत्य का बोध होगा वहाँ समता अवश्य दृढ़ होगी। जहाँ पूर्ण प्रेम विकसित होगा वहाँ पूर्णानन्द की स्थिति अवश्य सुलभ होगी।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘इष्टसिद्धि’

निष्काम गुरूसेवा


वैदिक काल में सुभाष नाम का एक विद्यार्थी अपने गुरू के चरणों में विद्याध्ययन करने गया। विद्या तो पढ़ता था, लेकिन गुरूजी की अंगत सेवा में अधिक लग गया। ऐसी सेवा की, ऐसी सेवा की कि गुरूजी का दिल जीत लिया। विद्योपार्जन करके जब घर लौट रहा था, तब गुरूजी ने कहाः
"बेटा ! तूने मेरा दिल जीत लिया है। हम तो ठहरे साधारण साधू। हमारे पास कोई धन-वैभव, राज-सत्ता नहीं कि तुझे कुछ दे सकें। वत्स ! तेरा कल्याण हो !" ऐसा करके प्यारे शिष्य को छाती से लगा लिया। फिर अपनी छाती से एक बाल उखाड़कर उसे देते हुए बोलेः
"बेटा ! ले, यह प्रसाद के रूप में सँभालकर रखना। जब तक यह तेरे पास रहेगा, तब तक तुझे धन-वैभव-लक्ष्मी की चिन्ता नहीं रहेगी।"
"गुरूदेव! आपने तो मुझे सब कुछ पहले से ही दे दिया है।"
"सो तो है, लेकिन यह भी रख ले।"
सुभाष ने बड़े आदर से वह बाल अपने पास रखा। हर रोज उसकी सेवा-पूजा करने लगा। उसके घर में सुख-शान्ति और समृद्धि का साम्राज्य छा गया।
सुभाष के पड़ोसी ने देखा कि यह भी पढ़कर आया है और मैं भी पढ़कर आया हूँ। उससे भी अधिक पढ़ा हूँ। लेकिन इसके पास इतना वैभव और मेरे पास कुछ नहीं ? इसके पास धन छनाछन और मैं हूँ ठनठनपाल ? इसका सर्वत्र मान हो रहा है और मुझको कोई पूछता तक नहीं ? ऐसा क्यों ?
पड़ोसी ने सुभाष से पूछा। सुभाष तो रहा सज्जन, सरल हृदयवाला। उसने बता दिया किः "यह सब गुरूजी की कृपा है। मैंने उनकी हृदयपूर्वक सेवा की, उनकी कृपा प्राप्त की। मै विदा हुआ तो उन्होंने अपनी छाती का बाल मुझे दिया। मैं रोज उसकी पूजा करता हूँ। यह सब उन्हीं का दिया हुआ है।"
पड़ोसी ने सुभाष के गुरूजी का पता पूछ लिया और पहुँच गया वहाँ। प्रणाम करके बोलाः
"गुरूजी ! मै सुभाष के पड़ोस में रहता हूँ। आपका नाम सुनकर आया हूँ।"
"ठीक है।" गुरूजी बोले।
"गुरू जी महाराज ! आपकी सेवा करूँगा।"
"कोई सेवा नहीं है।"
उसके भीतर तो धन-वैभव पाने की कामना खदबदा रही थी। उसकी सेवा में क्या बरकत होगी ? आश्रम में इधर-उधर उछल कूद की, थोड़ा-बहुत दिखावटी काम किया। शाम हुई तो गुरूजी से बोलाः
"गुरूजी ! आप दयालु हैं। सुभाष को धन्य किया है। मुझ पर भी कृपा करो। मेरी इच्छा भी पूरी करो।"
"क्या इच्छा पूरी करें।?"
"मुझे भी अपना बाल उखाड़कर दो।"
"अरे भाई ! उसका तो कोई प्रारब्ध जोर मार रहा था, इसलिए ऐसा हुआ। हम कोई चमत्कार करनेवाले नहीं हैं।"
उस आदमी ने सोचा कि कैसा भी हो, गुरूजी की छाती के इतने छोटे-से बाल में इतनी शक्ति है तो जटाओं के लम्बे-लम्बे बालों  में कितनी शक्ति होगी ? वह उठा और गुरूजी की जटाओं में हाथ डाला। चार-पाँच बाल खींचकर भागा।
कामनावाला व्यक्ति अन्धा हो जाता है। काम और सुख-भोग के संकल्प उसकी बुद्धि का दिवाला निकाल देते हैं।
गुरूजी ने कहाः "तुझे बाल इतने प्यारे हैं तो जा, तुझे बाल-ही-बाल मिलेंगे।"
वह घर गया। भोजन करने बैठे तो थाली में बाल। पूजा करने बैठे तो बाल। परेशान हो गया। उसकी हालत ऐसी कैसे बनी ? काम और संकल्प की आधीनता से। सुभाष सुखी कैसे बना? काम और संकल्परहित होकर गुरूसेवा में तन्मय होने से। काम और संकल्प की निवृत्ति की तो धन, मान, यश, सुख और शांति उसके पीछे-पीछे आयी।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

संकल्प अपने लिए नहीं

कच गुरू के प्रिय पात्र कैसे बन पाये ? संजीवनी विद्या कैसे पायी ? कामसंकल्पविवर्जिताः होकर गुरू की सेवा करने से। उनमें अपनी वैयक्तिक कामना की अन्धाधुन्धी नहीं थी। बुद्धि में ओज था, विकास था, प्रकाश था। जब अपना स्वार्थ होता है तब दूसरों का हिताहित भूल जाते है, नीति-नियम भूल जाते हैं। अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और सुख के लिए कामना और संकल्प होता है तो आदमी गलती कर बैठता है। जिसका संकल्प अपने लिए नहीं होता, समष्टि के लिए होता है तो उसकी बुद्धि ठीक काम देती है। अपनी कामना से जहाँ कहीँ सुख लेने जाते हैं तो गड़बड़ी होती है। दूसरों को सुख देने, प्रसन्न करने लग जाते हैं तो उनके सुख और प्रसन्नता में अपना सुख और चित्त की प्रसन्नता अपने-आप आ जाती है। कार्यों में सफलता मिलती है वह मुनाफे में।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

बहुजनहिताय बहुजनसुखाय

व्यक्तिगत सुख की कामना को बदलना हो तो बहुजनहिताय.... बहुजनसुखाय का संकल्प करो। परोपकारार्थ संकल्प होते ही और व्यक्तिगत सुख का संकल्प घटते ही आपकी विशालता बढ़ेगी। आपको अपने-आप सुख मिलेगा।
या वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति।
जो नितान्त छोटे हैं, वे व्यक्तिगत सुख के लिए उलझते हैं। जो उनसे थोड़े विकसित हैं वे परिवार के सुख का यत्न करते हैं। उनसे और थोड़े विकसित हैं वे पड़ोस के सुख का यत्न करते है। उनसे भी जो विकसित हैं वे क्रमशः तहसील के सुख का, राज्य के सुख का, राष्ट्र के सुख का और विश्व के सुख का यत्न करते है। उन सबसे जो अधिक विकसित हैं वे विश्वेश्वरस्वरूप में टिकने का प्रयत्न करते हैं। अपने विचारों का दायरा जितना बड़ा होगा, उतनी ही वृत्तियाँ विशाल होंगी। वृत्तियाँ जितनी विशाल होंगी, उतना ही आदमी सुखी होगा। वृत्तियाँ जितनी संकीर्ण होंगी, उतना ही आदमी दुःखी होगा। कुटुम्ब में भी जो व्यक्ति व्यक्तिगत संकीर्णता में जीता है उसका आदर नहीं होता। कुटुम्ब के दायरे  में जो जीता है, कुटुम्ब उसका आदर करता है। समाज के दायरे में  जो जीता है तो समाज उसका आदर करता है। जो विश्व का मंगल सोचता है, विश्व कल्याण में प्रवृत्त है वह विश्व की किसी भी जगह पर जाय तो उसकी सेवा करनेवाले, उसको सहयोग और सहकार देनेवाले लोग उसको प्राप्त हो जाते हैं। जैसे स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ आदि महापुरूष।
हमारी वृत्तियों का दायरा जितना-जितना बड़ा, उतना ही हमारा सुख बड़ा।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’