बिनशर्ती शरणागति

हनुमानजी के पास अष्टसिद्धियाँ, नवनिधियाँ थीं लेकिन हनुमान जी को तड़प थी पूर्णता की, परमेश्वर-तत्त्व के साक्षात्कार की। जो सृष्टि के आदि में था, अभी हैं और महाप्रलय के बाद में भी रहेगा, उस परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए हनुमान जी राम की सेवा में लग गये… बिनशर्ती शरणागति ! हनुमानजी साधारण नहीं थे, बालब्रह्मचारी थे। राम जी और लखनजी को कंधे पर उठाकर उड़ान भरते थे। रूप बदलकर राम जी की परीक्षा ले रहे थे और ‘राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।’ ऐसे कर्मनिष्ठ भी थे। हनुमानजी निःस्वार्थ कर्मयोगी भी थे, भक्त भी थे, ज्ञानिनामग्रगण्यम्….. ज्ञानियों में अग्रगण्य माने जाते थे लेकिन उऩ्होंने भी इस तत्त्वज्ञान को पाने के लिए रामजी की बिनशर्ती शरणागति स्वीकार की।
हनुमानजी के जीवन में मैनाक-सुवर्ण के पर्वत का लोभ नहीं, संग्रह नहीं और त्याग का अहंकार नहीं है। जो सुवर्ण के पर्वत को त्याग सकता है, वही सोने की लंका से सकुशल बाहर भी आ सकता है।

- पूज्य बापूजी : ऋषि प्रसाद मार्च २०१५ 

सेवा लेने वाले की भी कृपा है

विवेकानंद बोलते थे कि तुम सेवा करते तो ये न सोचो की ये तो दीन-हीन है,मैं नहीं होता तो इन  बेचारों का क्या होता? नहीं नहीं, यह तो ईश्वर की कृपा है और सेवा लेने वाले की भी कृपा है कि हमें अवसर दे रहा है ऐसा मानो।  ईश्वर ने हमें क्षमताएं दी उसकी कृपा है और ईश्वर ने हमें सेवा करने की क्षमताएं दी वो उसकी ईश्वर की कृपा है।  और कोई हमारी सचमुच में सेवा ले रहा है सत मार्ग पे  तो उसको भी धन्यवाद है। नहीं तो गाड़ी में लोग नहीं बैठे तो गाड़ी किस काम की ? सड़क पर लोग नहीं चले तो सड़क किस काम की? ऐसे ही हमारी वस्तुओ का और योग्यता का लोगों के लिए उपयोग न होवे तो वस्तु और योग्यताएं किस काम की ? अपनी वासनाओं को  बढ़ाने  के लिए वस्तु और वासनाएं का उपयोग होता है तो हम बर्बाद हो गए।  अपना अहंकार बढ़ाने में वस्तु और योग्यताओं का उपयोग होता है तो हमतो बर्बाद हो गए।  हमें तो आत्मिक आबादी चाहिए।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“