सेवा से सत्वगुण

दीन-हीन, लूले-लँगड़े, गरीब लोगों को सहायता करना यह दया है। जो लोग विद्वान हैं, बुद्धिमान हैं, सत्त्वगुण प्रधान है। जो ज्ञानदान करते कराते हैं ऐसे लोगों की सेवा में जो चीजें अर्पित की जाती हैं वह दान कहा जाता है। भगवान के मार्ग में चलने वाले लोगों का सहाय रूप होना यह दान है। इतर लोगों को सहाय रूप होना यह दया है। दया धर्म का मूल है। दान सत्त्वगुण बढ़ाता है। जीवन में निर्भयता लाता है।
-पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘दैवी संपदा’

स्त्री के सद्गुण

स्त्री में यह गुण है। एक बार अगर भक्ति को, ज्ञान को, सेवा को ठीक से पकड़ लेती है तो फिर जल्दी से छोड़ती नहीं। पुरुष छोड़ देता है। स्त्री नहीं छोड़ती। मीरा ने श्रीकृष्ण की भक्ति पकड़ ली तो पकड़ ली। शबरी ने मतंग ऋषि के चरणों में अपना जीवन सेवा और साधनामय कर लिया।

स्त्री में ऐसे गुण भी होते हैं। भय, कपट, अपवित्रता आदि दुर्गुण पुरुष की अपेक्षा स्त्री शरीर में विशेष रूप से रहते हैं तो श्रद्धा, समर्पण, सेवा आदि सदगुण, सेवा आदि सदगुण भी पुरुष की अपेक्षा विशेष रूप से रहते हैं।
-पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘दैवी संपदा’

सामर्थ्य को सेवा में लगा देना चाहिए

कठिनाई या अभाव को हर्षपूर्वक सहन करना तप है। तप से सामर्थ्य मिलता है। इस सामर्थ्य को सेवा में लगा देना चाहिए।

-पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘दैवी संपदा’

इस मार्ग में थोड़ा-थोड़ा बढ़ते-बढ़ते मन नारायण से मिलता है

पतन की शुरुआत कहाँ से हुई ? 'जरा-सा यह पी लें।' बस 'जरा-सा.... जरा-सा...' करते-करते मन कहाँ पहुँचाता है ! जरा-सा लिहाज करते हो तो मन चढ़ बैठता है। दुर्जन को जरा सी उँगली पकड़ने देते हो तो वह पूरा हाथ पकड़ लेता है। ऐसे ही जिसका मन विकारों में उलझा हुआ है उसके आगे लिहाज रखा तो अपने मन में छुपे हुए विकार भी उभर आयेंगे। अगर मन को संतों के तरफ, इष्ट के तरफ, सेवकों के तरफ, सेवाकार्यों के तरफ थोड़ा-सा बढ़ाया तो और सेवकों का सहयोग मिल जाता है। उपासना के तरफ मन बढ़ाया तो और उपासक मिल जाते हैं। इस मार्ग में थोड़ा-थोड़ा बढ़ते-बढ़ते मन नारायण से मिलता है और उधर अगर मन मुड़ जाता है तो आखिर में असुर से मिलता है।


-पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘दैवी संपदा’

महापुरुषों का सात्त्विक तेज

कभी किसी के डण्डे के तेज से कोई काम कर दे तो काम करने वाले का कल्याण नहीं होता। काम कराने वाले का उल्लू सीधा होता है। महापुरुषों का तेज ऐसा होता है कि अपना चित्त तो परमात्म-रस से पावन होता ही, जिनसे वे भक्ति, ज्ञान, सेवा, स्मरण, साधना करवाते हैं, जिनको भीतर से दैवी शक्ति का धक्का लगाते हैं उनके जीवन का भी उद्धार हो जाता है। महापुरुषों का ऐसा सात्त्विक तेज होता है।
-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘दैवी संपदा’

थोड़ी सी भी लापरवाही आगे चलकर दुःख देगी

एक शिष्य था। गुरुसेवा करता था लेकिन लापरवाह था। गुरु उसको समझाते थे किः "बेटा ! लापरवाही मत कर। थोड़ी सी भी लापरवाही आगे चलकर दुःख देगी।" शिष्य कहताः "इसमें क्या है? थोड़ा-सा दूध ढुल गया तो क्या हुआ? और सेर भर ले आता हूँ।"
यहाँ जरा से दूध की बात नहीं है, आदत बिगड़ती है। दूध का नुकसान ज्यादा नहीं है, जीवन में लापरवाही बड़ा नुकसान कर देगी। यह बात शिष्य के गले नहीं उतरती थी। गुरु ने सोचा कि इसको कोई सबक सिखाना पड़ेगा।
गुरुजी ने कहाः "चलो बेटा ! तीर्थयात्रा को जाएँगे।"
दोनों तीर्थयात्रा करने निकल पड़े। गंगा किनारे पहुँचे, शीतल नीर में गोता मारा। तन-मन शीतल और प्रसन्न हुए। सात्त्विक जल था, एकांत वातावरण था। गुरु ने कहाः
"गंगा बह रही है। शीतल जल में स्नान करने का कितना मजा आता है ! चलो, गहरे पानी में जाकर थोड़ा तैर लेते हैं। तू किराये पर मशक ले आ। मशक के सहारे दूर-दूर तैरेंगे।"
मशकवाले के पास दो ही मशक बची थी। एक अच्छी थी, दूसरी में छोटा-सा सुराख हो गया था। शिष्य ने सोचाः इससे क्या हुआ? चलेगा। छोटे-से सुराख से क्या बिगड़ने वाला है। अच्छी मशक गुरुजी को दी, सुराखवाली मशक खुद ली। दोनों तैरते-तैरते मझधार में गये। धीरे-धीरे सुराखवाली मशक से हवा निकल गई। शिष्य गोते खाने लगा। गुरुजी को पुकाराः
"गुरुजी ! मैं तो डूब रहा हूँ....।"
गुरुजी बोलेः "कोई बात नहीं। जरा-सा सुराख है इससे क्या हुआ?
"गुरुजी, यह जरा सा सुराख तो प्राण ले लेगा। अब बचाओ.... बचाओ.....!"
गुरुजी ने अपनी मशक दे दी और बोलेः "मैं तो तैरना जानता हूँ। तेरे को सबक सिखाने के लिए आया हूँ कि जीवन में थोड़ा-सा भी दोष होगा वह धीरे-धीरे बड़ा हो जायगा और जीवन नैया को डुबाने लगेगा। थोड़ी-सी गलती को पुष्टि मिलती रहेगी, थोड़ी सी लापरवाही को पोषण मिलता रहेगा तो समय पाकर बेड़ा गर्क होगा।"
"एक बीड़ी फूँक ली तो क्या हुआ?..... इतना जरा-सा देख लिया तो क्या हुआ? .... इतना थोड़ा सा खा लिया तो क्या हुआ?...."
अरे ! थोड़ा-थोड़ा करते-करते फिर ज्यादा हो जाता है, पता भी नहीं चलता। जब तक साक्षात्कार नहीं हुआ है तब तक मन धोखा देगा। साक्षात्कार हो गया तो तुम परमात्मा में टिकोगे। धोखे के बीच होते हुए भी भीतर से तुम सुरक्षित होगे।
-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘दैवी संपदा’

अपनी व्यक्तिगत सेवा अपने आप

हम लोग मन के विलास को जितना पोसते रहते हैं, उतना हम भीतर से खोखले हो जाते है। अपना व्यक्तिगत खर्च बढ़ाने से अहं की पुष्टि होती है। व्यक्तिगत खर्च घटाने से आत्मबल की पुष्टि होती है। अपनी व्यक्तिगत सेवा अपने आप करने से आत्मिक शक्ति का विकास होता है। दूसरों से व्यक्तिगत सेवा लेने से अहंगत सुख की भ्रान्ति होती है |

-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘अनन्य योग’

सेवा कर निर्बन्ध की

कबीर जी ने समझायाः
बँधे को बँधा मिले छूटे कौन उपाय
सेवा कर निर्बन्ध की पल में दे छुड़ाय ।।
'जो पंडित खुद स्थूल 'मैं' में बँधा है, सूक्ष्म 'मैं' में बँधा है, उसको बोलते हो कि मुझे भगवान के दर्शन करा दो ? स्थूल और सूक्ष्म अहं से जो छूटे हैं, ऐसे निर्बन्ध ब्रह्मवेत्ता की सेवा करके उन्हें रिझा दो तो बेड़ा पार हो जाय। वे तुम्हें उपदेश देकर पल में छुड़ा देंगे।"
-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘अनन्य योग’

दायाँ हाथ बायें की सेवा कर ले तो क्या अभिमान करे

जिनको ज्ञान में रूचि है, ईश्वरत्व के प्रकाश में जो जीते हैं, उनको कुछ करके स्वर्ग में जाकर सुख लेने की इच्छा नहीं। नर्क के दुःख के भय से पीड़ित होकर कुछ करना नहीं। वे तो समझते हैं कि सब मेरे ही अंग है। दायाँ हाथ बायें की सेवा कर ले तो क्या अभिमान करे और बायाँ हाथ दाहिने हाथ की सेवा कर ले तो क्या बदला चाहेगा ? पैर चलकर शरीर को कहीं पहुँचा दे तो क्या अभिमान करेंगे और मस्तिष्क सारे शरीर के लिए अच्छा निर्णय ले तो क्या अपेक्षा करेगा ? सब अंग भिन्न भिन्न दिखते हैं फिर भी हैं तो सभी एक शरीर के ही।
ऐसे ही सब जातियाँ, सब समाज, सब देश भिन्न-भिन्न दिखते हैं, वे सत्य नहीं हैं। जातिवाद सत्य नहीं है। स्त्री और पुरूष सत्य नहीं है। बाप और बेटा सत्य नहीं है। बेटा और बाप, पुरूष और स्त्री, जाति और उपजाति तो केवल तरंगें हैं। सत्य तो उनमें चैतन्यस्वरूप जलराशि ही है।
........... नारायण... नारायण....नारायण....

-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘अनन्य योग’

सेवा से आत्मज्ञान व्यवहार में

"ॐ....ॐ....ॐ.... आनन्द.... खूब आनन्द.... विशाल हृदय, विशाल ज्ञान... दिव्य ज्ञान... विशाल प्रेम.... ॐ....ॐ..... सर्वोऽहम्... सुखस्वरूपोऽहम्। मैं सर्व हूँ.... मैं सुख स्वरूप हूँ.... मैं आनन्दस्वरूप हूँ... मैं चैतन्यरूप हूँ... ।"
सेवा इस आत्मज्ञान को व्यवहार में ले आती है। भावना इस आत्मज्ञान को भावशुद्धि में ले आती है। वेदान्त इस जीवन को व्यापक स्वरूप से अभिन्न बना देता है।
इस विशाल अनुभव से चाहे हजार बार फिसल जाओ, डरो नहीं। चलते रहो इसी ज्ञानपथ पर। एक दिन जरूर सनातन सत्य का साक्षात्कार हो जायेगा। दृष्टि जितनी विशाल रहेगी, मन जितना विशाल रहेगा, बुद्धि जितनी विशाल रहेगी, उतना ही विशाल चैतन्य का प्रसाद प्राप्त होता है। उस प्रसाद से सारे दुःख दूर हो जाते हैं।

-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘अनन्य योग’

आधी अविद्या सदगुरू की सेवा से दूर

आधी अविद्या तो सदगुरू की सेवा से ही दूर हो जाती है। बाकी  की आधी अविद्या ध्यान, जप और शास्त्रविचार इन तीन साधनों से दूर करके जीव मुक्त हो जाता है।
-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘अनन्य योग’

सीधा गणित

ईश्वर को आवश्यकता है तुम्हारे प्यार की, जगत को आवश्यकता है तुम्हारी सेवा की और तुम्हें आवश्यकता है अपने आपको जानने की।
शरीर को जगत की सेवा में लगा दो, दिल में परमात्मा का प्यार भर दो और बुद्धि को अपना स्वरूप जानने में लगा दो। आपका बेड़ा पार हो जायगा। यह सीधा गणित है।
-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘अनन्य योग’ 

जगत की सेवा करना तुम्हारी आवश्यकता

स्वामी रामतीर्थ कहते हैं-
"हे मूर्ख मनुष्यों ! अपना धन, बल व शक्ति बड़े-बड़े भवन बनाने में मत खर्चो, रूचि की पूर्ति में मत खर्चो। अपनी आवश्यकता के अनुसार सीधा सादा निवास स्थान बनाओ और बाकी का अमूल्य समय जो आपकी असली आवश्यकता है योग की, उसमें लगाओ। ढेर सारी डिजाइनों के वस्त्रों की कतारें अपनी अलमारी में मत रखो लेकिन तुम्हारे दिल की अलमारी में आने का समय बचा लो। जितनी आवश्यकता हो उतने ही वस्त्र रखो, बाकी का समय योग में लग जायेगा। योग ही तुम्हारी आवश्यकता है। विश्रान्ति तुम्हारी आवश्यकता है। अपने आपको जानना तुम्हारी आवश्यकता है। जगत की सेवा करना तुम्हारी आवश्यकता है क्योंकि जगत से शरीर बना है तो जगत के लिए करोगे तो तुम्हारी आवश्यकता अपने आप पूरी हो जायगी।

-पूज्य बापूजी के सत्संग से : आश्रम पुस्तक - ‘अनन्य योग’

करने की शक्ति को परहित में लगाओ

अपनी करने की शक्ति को स्वार्थ में नहीं अपितु परहित में लगाओ तो करना तुम्हारा योग हो जायेगा। मानने की शक्ति है तो विश्वनियंता को मानो। वह परम सुहृद है और सर्वत्र है, अपना आपा भी है और प्राणी मात्र का आधार भी है। जो लोग अपने को अनाथ मानते हैं, वे परमात्मा का अनादर करते हैं।  जो बहन अपने को विधवा मानती है, वह परमात्मा का अनादर करती है। अरे ! जगतपति परमात्मा विद्यमान होते हुए तू विधवा कैसे हो सकती है ? विश्व का नाथ साथ में होते हुए तुम अनाथ कैसे हो सकते हो ? अगर तुम अपने को अनाथ, असहाय, विधवा इत्यादि मानते हो तो तुमने अपने मानने की शक्ति का दुरूपयोग किया। विश्वपति सदा मौजूद है और तुम आँसू बहाते हो ?
"मेरे पिता जी स्वर्गवास हो गये.... मैं अनाथ हो गया.........।"
"गुरुजी आप चले जायेंगे... हम अनाथ हो जाएँगे....।"
नहीं नहीं....। तू वीर पिता का पुत्र है। निर्भय गुरू का चेला है। तू तो वीरता से कह दे कि, 'आप आराम से अपनी यात्रा करो। हम आपकी उत्तरक्रिया करेंगे और आपके आदर्शों को, आपके विचारों को समाज की सेवा में लगाएँगे ताकि आपकी सेवा हो जाय।' यह सुपुत्र और सत् शिष्य का कर्त्तव्य होता है। अपने स्वार्थ के लिये रोना, यह न पत्नी के लिए ठीक है न पति के लिए ठीक है, न पुत्र के लिए ठीक है न शिष्य के लिए ठीक है और न मित्र के लिए ठीक है।

-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘अनन्य योग’

सहज में मुक्तिफल

तोटकाचार्य, पूरणपोडा, सलूका-मलूका, बाला-मरदाना जैसे सत् शिष्यों ने गुरू की सेवा में, गुरू की दैवी कार्यों में अपने करने की, मानने की और जानने की शक्ति लगा दी तो उनको सहज में मुक्तिफल मिल गया। गुरूओं को भी ऐसा सहज में नहीं मिला था जैसा इन शिष्यों को मिल गया। श्रीमद् आद्य शंकराचार्य को गुरूप्राप्ति के लिए कितना कितना परिश्रम करना पड़ा !कहाँ से पैदल यात्रा करनी पड़ी ! ज्ञानप्राप्ति के लिए भी कैसी-कैसी साधनाएँ करनी पड़ी ! जबकि उनके शिष्य तोटकाचार्य ने तो केवल अपने गुरूदेव के बर्तन माँजते-माँजते ही प्राप्तव्य पा लिया।

-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘अनन्य योग’

आवश्यकता के अनुसार सेवा

जो लोग रूचि के अनुसार सेवा करना चाहते हैं, उनके जीवन मे बरकत नहीं आती। किन्तु जो आवश्यकता के अनुसार सेवा करते हैं, उनकी सेवा रूचि मिटाकर योग बन जाती है। पतिव्रता स्त्री जंगल में नहीं जाती, गुफा में नहीं बैठती। वह अपनी रूचि पति की सेवा में लगा देती है। उसकी अपनी रूचि बचती ही नहीं है। अतः उसका चित्त स्वयमेव योग में आ जाता है। वह जो बोलती है, ऐसा प्रकृति करने लगती है।

-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘अनन्य योग’

आपकी सेवा में सारा समाज तत्पर

आप समाज के काम में आओगे तो आपकी सेवा में सारा समाज तत्पर रहेगा। एक मोटरसाइकल काम में आती है तो उसको संभालने वाले होते हैं कि नहीं ? घोड़ा गधा काम में आता है तो उसको भी खिलाने वाले होते हैं। आप तो मनुष्य हो। आप अगर लोगों के काम आओगे तो हजार-हजार लोग आपकी आवश्यकता पूरी करने के लिए लालायित हो जायेंगे। आप जितना-जितना अपनी रूचि को छोड़ोगे, उतनी उतनी उन्नति करते जाओगे।

-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘अनन्य योग’

ईश्वरीय प्रभाव तुम्हारे द्वारा काम करने लगे

समाजसेवक बनो तो ऐसे निरपेक्ष बनो कि ईश्वरीय प्रभाव तुम्हारे द्वारा काम करने लगे। कोई वाहवाही करने लगे तो उसकी बात को टाल दो।

-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘समता साम्राज्य’

सेवा से अमित फल

अमित आत्मा में टिके हुए आत्मज्ञानियों की सेवा अमित फल देती है।

-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘समता साम्राज्य’

प्यारे सेवक आगे चलकर आत्मज्ञान के अधिकारी

भगवान के भक्त की भक्ति में विघ्न डालने से, भक्त को सताने से अपने पुण्य शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। इससे विपरीत, भगवान के भक्त को जो सहाय करते हैं उनको बड़ा पुण्य होता है। साधारण आदमी की सेवा करने से जो पुण्य होता है उससे अनन्तगुना पुण्य भगवान के भक्त की सेवा करने से होता है। जैसे, किसी चपरासी को दूध को प्याला पिला दो, ठीक है, होगा थोड़ा सा लाभ। अगर राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री तुम्हारा दूध का प्याला पी लें तो इसका प्रभाव कुछ और होगा।
इसी प्रकार जो उन्नत भक्त हैं, ज्ञानी महापुरुष हैं उनकी सेवा में हमारा तन-मन-धन जो कुछ भी लग जाय उसका अनंत गुना लाभ होता है। सच्चे सेवक यह अनंत गुना लाभ ऐहिक जगत विषयक नहीं लेना चाहते। वे और किसी को नहीं चाहते, जिनकी सेवा करते हैं उन्हीं की प्रीति चाहते हैं। उनके होकर जीने में अपने जीवन की धन्यता का अनुभव करते हैं। ऐसे प्यारे सेवक आगे चलकर आत्मज्ञान के अधिकारी बन जाते हैं। आत्मज्ञान के लिए अधिकारी बनना पड़ता है। केवल वरदान या आशीर्वाद से आत्मज्ञान नहीं हो सकता।
-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘समता साम्राज्य’

संतन की बात बात में बात

स्वामी प्रज्ञानंद जी महाराज बड़े उच्च कोटि के संत थे। गंगा किनारे से कुछ ही कदम दूर उनका भव्य आश्रम था। साधक भक्त वहाँ रहते थे। कभी-कभी अतिथि संत और मित्र संत भी वहाँ ठहरा करते थे।
एक बार स्वामी प्रज्ञानन्दजी किसी मित्र संत के साथ गंगाजी के बीच जाकर स्नान कर रहे थे। वहाँ उन्होंने अपने शिष्य को आवाज लगायीः
"मुक्तेश्वर....! ओ मुक्तेश्वर....!!"
मुक्तेश्वर लड़का आश्रम से भागता हुआ आया।
"गुरुजी ! क्या आज्ञा है ?"
"बेटा ! मुझे गंगाजल पीना है।"
मुक्तेश्वर आश्रम में गया। लोटा लाया। गंगा किनारे की बालू से माँजकर लोटा चकचकित किया और फिर गंगा में उतरा। गुरुजी मित्र संत के साथ जहाँ खड़े थे वहाँ जाकर लोटा पुनः धोकर गंगाजल से भरकर गुरुजी को दिया। उसको पता था कि गुरुजी बहती गंगा का जल पीते हैं। गुरुजी ने लोटे में से हाथ में जल की धारा करते हुए गंगाजल पिया। मुक्तेश्वर लोटा लेकर वापस चला गया। मित्र संत ने पूछाः
"आपको जब यहीं का गंगाजल हाथों से पीना था तो 'मुक्तेश्वर..... मुक्तेश्वर....' चिल्लाये, वह आया, वापस जाकर लोटा ले आया, बालू से साफ किया, गंगा में उतरा और यहीं से भरकर आपको दिया। आपने हाथों में ही पानी डालकर पिया। इतना सारा परिश्रम करवाया ?"
बाबाजी ने कहाः "इस बहाने उसको सेवा दी। और सेवा इसलिए दी कि उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाए ताकि ब्रह्मविद्या उसको पच जाय।"
ज्यों केले के पात पात में पात।
त्यों संतन की बात बात में बात।।

-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘समता साम्राज्य’

गुरुलोग अपने प्यारे शिष्यों से कड़ी सेवा करवाते हैं

जिन लोगों को मुफ्त में आत्मज्ञान सुनने को मिलता है उनको ज्ञान का पूरा लाभ नहीं मिल पाता। उनके हृदय में ज्ञान प्रवेश ही होगा तो ज्ञान का स्वाद नहीं आयगा। जितने प्रमाण में कुछ न कुछ सेवा करके, परिश्रम करके ज्ञान लेते हैं उतने अंश में ज्ञान फलता है। जिनको बिना परिश्रम के आध्यात्मिक शक्तियाँ मिलती हैं वे ज्यादा समय तक टिकती नहीं, पचती नहीं, अजीर्ण होकर निकल जाती हैं। फिर वे बेचारे ऐसे के ऐसे ठंठनपाल हो जाते हैं। इसीलिए गुरुलोग अपने प्यारे शिष्यों से कड़ी सेवा करवाते हैं, परिश्रम करवाते हैं, परोपकार के कार्य करवाते हैं, तन-मन-धन-बुद्धि जो भी योग्यता शिष्य के पास हो वह परहित में लगवाते हैं। इससे समाज का भी कल्याण होता है और शिष्य का भी परम कल्याण हो जाता है।

-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘समता साम्राज्य’

सच्चाई से सेवा

जब तक आत्मज्ञान न हो तब तक तत्परता से, संयम से सदाचार और सच्चाई से सेवा करो, साधना करो।


-आश्रम पुस्तक - ‘समता साम्राज्य’

सेवा से हृदय का अज्ञान दूर - श्री कृष्ण

तब भगवान श्री कृष्ण कहने लगेः "हे मुनीश्वर ! पचास वर्ष की निष्कपट भक्ति से भी हृदय का अज्ञान दूर नहीं होता है। हृदय शुद्ध जरूर होता है पर अज्ञान नहीं मिटता। ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष के एक मुहूर्त के समागम से, उनके चरणों की एक मुहूर्त की सेवा से हृदय का अज्ञान दूर हो सकता है। धातु से बनी मूर्ति में भगवत्-बुद्धि, जल से भरे हुए जलाशयों में तीर्थ-बुद्धि, हाड़-मांस के पुत्र-परिवार में मेरेपन की बुद्धि करते हैं पर महापुरुषों में जिनकी पूज्य बुद्धि नहीं है वे साक्षात् गोखर माने गये हैं।"
(श्रीमद् भागवतः 10.84.11.12.13)

-आश्रम पुस्तक - ‘समता साम्राज्य’

राग-द्वेष से बचे

जिसको आप बुरा समझते हो उसके साथ उदारता का व्यवहार करो। जो ऐसा वैसा दिखता है उसमें भी गुण होंगे ही। उसके गुण देखकर प्रशंसा करो। उसके दोषों को भूल जाओ। अपने आप चित्त में शांति रहने लग जाएगी। राग-द्वेष को पुष्ट किया तो सब ध्यान-भजन चौपट। एक ही परमात्मा को खण्ड-खण्ड करके अच्छे-बुरे मानकर देखते रहोगे तो चित्त में क्षोभ बना रहेगा, ईर्ष्या और जलन होती रहेगी। अन्तःकरण अशुद्ध बनेगा।

सेवा करो, जप करो, अन्तःकरण को शुद्ध करो, फिर एक दूसरे से राग-द्वेष करो तो साधना की हो गई सफाई। जमा उधार दोनों बराबर। कमाई शून्य।

-आश्रम पुस्तक - ‘समता साम्राज्य’

सेवा करते-करते भीतर का संपर्क


कोई भी सेवा करने से पहले अपने भीतर गोता मारो। सेवा पूरी कर लेने के बाद भी अपने भीतर चले आओ, तो सेवा बढ़िया हो जाएगी। सेवा करते-करते भीतर का संपर्क नहीं रखोगे तो वहाँ भी राग-द्वेष, पार्टी-बाजी, दलबन्दी हो जाएगी और सेवा सेवा नहीं रहेगी, मुसीबत बन जाएगी। नाम तो सेवा का होगा पर पद की लालच सताती रहेगी। अपमान की चोट हृदय को झकझोरती रहेगी। मान की अभिलाषा दिल को लालायित करती रहेगी। दिल दिलबर से दूर होता जाएगा।
-आश्रम पुस्तक - ‘समता साम्राज्य’

श्रीमद् भागवत में सेवा महिमा

भगवान श्री कृष्ण कहने लगेः "हे मुनीश्वर ! पचास वर्ष की निष्कपट भक्ति से भी हृदय का अज्ञान दूर नहीं होता है। हृदय शुद्ध जरूर होता है पर अज्ञान नहीं मिटता। ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष के एक मुहूर्त के समागम से, उनके चरणों की एक मुहूर्त की सेवा से हृदय का अज्ञान दूर हो सकता है। धातु से बनी मूर्ति में भगवत्-बुद्धि, जल से भरे हुए जलाशयों में तीर्थ-बुद्धि, हाड़-मांस के पुत्र-परिवार में मेरेपन की बुद्धि करते हैं पर महापुरुषों में जिनकी पूज्य बुद्धि नहीं है वे साक्षात् गोखर माने गये हैं।"

(श्रीमद् भागवतः 10.84.11.12.13)
-आश्रम पुस्तक - ‘समता साम्राज्य’

जिन सेव्या तिन पाया मान.....

जिन सेव्या तिन पाया मान.....।
सेवक को सेवा में जो आनन्द आता है वह सेवा की प्रशंसा से नहीं आता। सेवा की प्रशंसा में जिसे आनन्द आता है वह सच्चा सेवक भी नहीं होता।
आप अपनी सेवा, अपना सत्कर्म, अपना जप-तप, अपनी साधना जितनी गुप्त रखोगे उतनी आपकी योग्यता बढ़ेगी। अपने सत्कर्मों का जितना प्रदर्शन करोगे, लोगों के हृदय में उतनी तुम्हारी योग्यता नष्ट होगीष लोग बाहर से तो सलामी कर देंगे किन्तु भीतर समझेंगे कि यह तो यूँ ही कर दिया। कोई नेता बोलेगा तो लोग तालियाँ बजाएँगे, फिर पीछे बोलेंगे, यह तो ऐसा है। संत महापुरुषों के लिए ऐसा नहीं होता। महात्मा की गैरहाजरी में उनके फोटो की, प्रतिमाओं की भी पूजा होती है।
हम अपने श्रोताओं को यह सब क्यों सुना रहे हैं ? क्योंकि उन्हें जगाना है। मैं तुम लोगों को दिखावे का यश नहीं देना चाहता। वास्तविक यश के भागी बनो ऐसा मैं चाहता हूँ। इसीलिए सेवाधर्म के संकेत बता रहा हूँ।

-आश्रम पुस्तक - ‘समता साम्राज्य’

शिक्षित आदमी की सेवा व्यापक

एक होती है शिक्षा, दूसरी होती है दीक्षा। शिक्षा ऐहिक वस्तुओं का ज्ञान देती है। स्कूल-कॉलेजों में हम लोग जो पाते हैं वह है शिक्षा। शिक्षा की आवश्यकता है शरीर का पालन-पोषण करने के लिए, गृहस्थ व्यवहार चलाने के लिए। यह शिक्षा अगर दीक्षा से रहित होती हैं तो वह विनाशक भी हो सकती है। शिक्षित आदमी समाज को जितना हानि पहुँचाता है उतना अशिक्षित आदमी नहीं पहुँचाता। शिक्षित आदमी जितना धोखा कर सकता है उतना अशिक्षित आदमी नहीं करता। विश्व में शिक्षित आदमी जितना उपद्रव पैदा कर चुके हैं उतना अशिक्षित आदमी ने नहीं किया। साथ ही साथ, शिक्षित आदमी अगर सेवा करना चाहे तो अशिक्षित आदमी की अपेक्षा ज्यादा कर सकता है।

आश्रम पुस्तक - ‘समता साम्राज्य’

सेवा का सदगुण

आपके जीवन में सेवा का सदगुण हो । ईश्वर की सृष्टि को सँवारने के भाव से आप पुत्र-पौत्र, पति-पत्नी आदि की सेवा कर लें । “पत्नी मुझे सुख दे” । इस भाव से की तो यह स्वार्थ हो जायेगा और स्वार्थलम्बे समय तक शांति नहीं दे सकता । पति की गति पति जानें, मैं तो सेवा करके अपना फर्ज निभा लूँ… पत्नी की गति पत्नी जाने मैं तो अपना उत्तरदायित्व निभा लूँ । ऐसे विचारों से सेवा कर लें।
 
पत्नी लाली लिपस्टिक लगाये कोई जरुरी नहीं है, डिस्को करे कोई जरुरी नहीं है । जो लोग अपनी पत्नी को कठपुतली बनाकर, डिस्को करवाकर दूसरे के हवाले करते हैं और पत्नियाँ बदलते हैं, वे नारीजाति का घोर अपमान करते हैं । वे नारी को भोग्या बना देते हैं । भारत की नारी भोग्या या कठपुतली नहीं है, वह तो भगवान की सुपुत्री है । नारी तो नारायणी है ।
- आश्रम पुस्तक - 'जीवनोपयोगी कुंजियाँ'

अपना कल्याण

जो अपना कल्याण चाहता है वह औरों का कल्याण करे, निष्काम भाव से औरों की सेवा करे ।

-पूज्य बापूजी :आश्रम पुस्तक - 'जीवनोपयोगी कुंजियाँ'

आलस्य को जीतना हो तो

आलस्य को जीतना हो तो निष्काम कर्म करने चाहिए ।  सेवा से आलस्य दूर होगा एवं धीरे-धीरे साधना में भी मन लगने लगेगा ।
-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - 'जीवनोपयोगी कुंजियाँ'

आप अमानी दूसरे को मान

सेवाकार्य तो करें लेकिन राग-द्वेष से प्रेरित होकर नहीं,  अपितु दूसरे को मान देकर, दूसरे को विश्वास में लेकर सेवाकार्य करने से सेवा भी अच्छी तरह से होती है और साधक की योग्यता भी निखरती है ।
-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - 'जीवनोपयोगी कुंजियाँ'