स्व के तंत्र को जाना है?

आचार्य विनोबा भावे के यहाँ कोई समिति वाले ने आखरी राम राम किये कि “महाराज ! की अब हम आश्रम में से जायेंगे। हमको यहाँ का वातावरण सूट नहीं होता।”

बोले “क्यों?”

बोले "नए संचालक आ गए। उनके कहने के अनुसार थोड़ा थोड़ा बात भी उनके कहने के अनुसार करनी पड़ती है। हम करेंगे ये सेवा ( भूदान यज्ञ की ) लेकिन स्वतंत्र होकर करेंगे।"

विनोबा ने कहा "स्वतंत्र स्व के तंत्र को जाना है? स्व तो आत्मा है उसको तो जाना नहीं है बेटा ! तो मतलब तेरे मन में जैसे आयेगा ऐसी सेवा करेगा। "

तो बोले "हाँ "

"तो मन तो अपना नौकर है। मतलब गुरुभाई की या गुरु के सिद्धांत की बात नहीं मानूंगा। जैसा मेरा नौकर कहेगा ऐसा ही करूँगा यही हुआ तेरा ?"

जैसा मेरा नौकर कहेगा ऐसा करूँगा। शास्त्र कहे, गुरु कहे, गुरुभाई कहे वो नहीं करूँगा जैसा मेरा मन कहे ऐसा करूँगा यही तेरी बात हुई।

उस युवक की थोड़ी बहुत सेवा थी तुरंत लाइट हुई और चरणों पे गिरा कि...  नहीं ये द्वार छोड़ कर कही नहीं जाऊँगा। करूँगा सेवा ।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

निष्काम कर्म के बिना जीवन निखरेगा नहीं

एक फौजी आता था। छः -आठ साल पहले की बात है । एम.ए. पढ़ा था। गुजर जाति का था, सरदार था। तो बड़ी श्रद्धा उसकी आँखों में....मैं कभी घूमने गया तो हाथ जोड़ के पीछे चलता था सरदार। मैंने कहा  "तुम कहाँ से आते हो? क्या बात है ?"

बोले "स्वामीजी ! मैं इतवार - बुधवार को आपकी कथा होती है | एक बार आ गया था। फिर मेरे को अच्छा लगा, मैं आता रहा। स्वामीजी अब तो मेरी बदली हो रही है। लेकिन मैं बहुत-बहुत आभारी हूँ। कि मैं यहाँ आया और मेरी शराब छूट गयी।  मेरे हिस्से का शराब दूसरों को दे देता था। नहीं तो मैं शराब के लिए लड़ मरता था। मेरा माँस खाना छूट गया, आपने तो छुड़वाया नहीं। केवल इस रेंज में आया तो छूट गया। और स्वामीजी ! पहले मैं अपना काम टालम - टोल करता था अभी मैं अपने ऑफिस का , ये हनुमान कैंप में जो ऑफिस है ,ये अपना आश्रम के सामने वो नदी के उस किनारे जो है।  नदी के एक किनारे अपना आश्रम और दूसरे किनारे फौजियों के डेरे है। स्वामीजी! मैं वहाँ काम करता हूँ।  फ़ौज में हूँ।  पहले तो मैं अपना काम भी असिस्टेंट को या दूसरे को दे देता था। लेकिन अभी मैं अपना भी कर लेता हूँ बॉस का भी कर लेता हूँ। और कोई साथी होता है उनका काम भी कर लेता हूँ, काम करने में भी मजा आ रहा है महाराज ! ध्यान का थोड़ा सा मजा आया तो अब पता चलता है कि सेवा में कितना मजा है महाराज ! मैं तो ढूंढ लेता हूँ सेवा "


निष्काम कर्म के बिना जीवन निखरेगा नहीं। ईश्वर प्रीति अर्थ कर्म किये बिना जीवन का विकास होगा ही नहीं। कुछ लोग करते हैं थोड़ा काम तो फिर अधिकार के लिए झपट झपट के मर रहे है। पद और प्रतिष्ठा के लिए मर रहे है। अपनी योग्यता को उसी में मार रहे है।
पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

हमारा कर्त्तव्य हो जाता है सेवा कार्य करना

महाराज निष्कामता में इतनी शक्ति है लेकिन अंधे लोग जानते नहीं। जिसके पास धन है, बुद्धि है, स्वास्थ है, योग्यता है अगर वो सत्कर्म नहीं करता है ईश्वर प्रीत्यर्थ कर्म नहीं करता है तो वो स्वार्थी है। विषय लम्पट्टू है, वो दण्ड का पात्र है, अशांति का पात्र है, विनाश का पात्र है ऐसा शास्त्र कहते है।

ये हमारा कर्तव्य हो जाता है सेवा कार्य करना। अपनी भलाई के लिए हमारा कर्त्तव्य हो जाता है। और जिनको सेवा मिलाती है वे लोग टालते रहते है या छटकबारी करते दूसरे के कंधे बन्दूक  रखते है उनकी खोपड़ी में ही बन्दूक  जैसी अशांति हो जाती है। अपना कार्य तो तत्परता से हम करें लेकिन दूसरे के कार्य में भी हाथ बटायें।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

निष्काम सेवा का प्रभाव

राजा की सवारी जा रही थी, बड़ा यशोगान हो रहा था। बचपन में ही बाप छोड़ कर रवाना हो गया |  ऐसा बालक अपनी विधवा माँ को बोलता है की ‘ माँ ! राजा साहब देखो ! हाथी पे जा रहे…. रथ पे जा रहे…मुझे इस राजा से मिलना है।’ माँ ने कहा ‘बेटा राजा से मिलना है तो एक ही उपाय है। राजा का नया महल बन रहा है। वहाँ जाकर काम कर। हफ्ते हफ्ते में पगार देते है।  तू लेना कुछ मत। अपने आप राजा मिल जायेगा तुझे।’

लड़के ने काम शुरू किया | हफ्ते हफ्ते की जो खर्ची मिलती थी उसने एक बार भी नहीं ली | बोले नहीं लेना है।  पैसा नहीं लेता …पैसा नहीं लेता … काम कर रहा है।  दिल लगाके कर रहा है।  इसकी खबर ऊँचे अधिकारी को पहुंची। फिर और ऊँचे को पहुंची।  यहाँ तक वजीर तक पहुंची और वजीर उस लड़के को देखने आया और वजीर ने जाकर राजा को कहा कि एक लड़का है। जवान है, अभी जवानी उभर रही है और काम खूब करता है। वो पैसा नहीं ले रहा है। बोले ये कैसे? बोले क्या पता?

जाँच करो !! वजीर ने जाँच किया कि “भाई! क्यों नहीं पैसा ले रहा?

बोले “नहीं ! राजा साहब का महल है।  इतनी तो सेवा हम को मिल जाये। ”

“तो तेरे को पैसे की जरूरत नहीं है ?”

बोले “जरूरत नहीं है ऐसी बात नहीं है |” मेरी माँ विधवा है। पिता मर गए। खेत में तो बहुत थोड़ा सा आता है। लेकिन गुजारा हो जाता है।  सेवा कर रहा हूँ ”

राजा तक खबर गयी।  राजा ने देखा कि ‘नपातुला है, बचपन में पिता छोड़कर मर गए। विधवा माता है। २-१ एकड़ का खेत है उससे गुजारा कैसे? और काम कर रहा है दिल लगा के और कुछ  नहीं लेता है। उसको जरा बुलाओ। राजा ने अपने महल में बुलाया। और कुछ नहीं लेता है तो उसको भोजन-वोजन कराया और बड़ा मान दिया।

और राजा उस पर बड़ा खुश हो गया। ‘अच्छा ! तूने इतने दिन तक मेहनताना नहीं लिया। तो अब क्या करो दस-पाँच हजार रूपया तुमको दे देते है ‘वैसे तो दोसौ -पांचसौ होता था अब दस-पाँच हजार रुपये आ रहे है। बोले ‘ नहीं ! नहीं ! दस-पाँच हजार क्या करना है ? मेरी तो ये भावना थी की मैं राजा साहब से मिलूँ तो माता ने कहा कुछ मत लेना।  सेवा करना।  सेवा से तुम्हारा जो भी संकल्प हो फलेगा।  तो मुझे आप मिल गए बस और  कुछ नहीं चाहिए।

राजा कहता है कि ‘ मैं तो तुझे मिल गया लेकिन मुझे तेरे जैसा निष्कामी पुत्र मुझे मिल गया अब तू मेरा बेटा है। ‘  कुछ दिन आता जाता रहा तो रानी साहिबा ने भी उसके स्वभाव को परख लिया, राजा ने उसकी निष्कामता को परख लिया कह दिया तू मेरा बेटा है।

कथा तो बड़ी रसपद्र है लेकिन राजा ने उसको बेटा बनाके राजतिलक कर दिया।  जब शोभायात्रा निकली तो पिता और पुत्र…नूतन राजा और पास में भूतपूर्व राजा बैठे | नगर में यात्रा निकली तो वो माँ राजा की सवारी देखने को निकली। राजा को बताया नूतन राजा ने की वो मेरी माता है। बोले “वो तेरी माता नहीं मेरी भी माता है।  जय हो तेरे जैसे निष्कामी योगी को जन्म दिया। तू तो रथ से उतर कर प्रणाम करने जाता है , लेकिन मैं भी उस माता को प्रणाम करने चलता हूँ। उसके आगे तू भी बेटा  है मैं भी बेटा हूँ।”

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

गुरु का दिया कब पचता है ?

हाथी बाबा से किसी ने पूछा कि भजन करे तो क्या फायदा होगा ? तो रोने लग गए। बोले ‘महाराज मैं कोई बुरा तो नहीं किया ? ‘ बोले  ‘मेरा कौनसा दुर्भाग्य कि जरा जरा बात में क्या लाभ होगा ऐसे बनिये, स्वार्थी टट्टू का दर्शन हुआ सुबह सुबह !! जरा जरा बात में क्या लाभ होगा? क्या लाभ होगा? मेरा मन ख़राब होगा तेरे जैसे व्यक्ति के बीच में मैं रहूँगा तो। ‘ सब काम केवल बाह्य  लाभ देख कर नहीं किये जाते। कोई लाभ की जरूरत ही नहीं है।  मेरा स्वभाव है सत्कर्म करना। नित्य कर्म, नैमित्तिक कर्म तो करता है |,काम्य कर्म तो करता है | लेकिन वो कुछ ऐसा भी समय निकाले कि कोई बाह्य लाभ की जरूरत ही नहीं।

द्रौपदी ने पूछा कि “आप तो संध्या करते, ध्यान करते, घंटो भर बैठे युधिष्ठिर जी !! और हम लोग इतने दुखी है और वो दुष्ट राज्य का मौज लेता है तो क्या भगवान से या अपने आत्मा से आप ये संकल्प नहीं कर सकते कि हम इतने दुखी क्यों है ?” युधिष्ठिर ने कहा कि मैं दुःख मिटने के लिए भजन नहीं कर रहा हूँ। लेकिन भजन करने से सुख मिल रहा है। आनंद मिल रहा है और मेरा कर्त्तव्य है, मेरा स्वभाव है इसलिए मैं भजन कर रहा हूँ। गुरु ने वहां झाडू लगवाएं, बुआरी करवाई। निष्कामता होते होते योग्यता आई तब गुरु ने दिया तो पचा नहीं तो नहीं पचता।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

सबसे ऊँचे कर्म : निष्काम कर्म

पहला श्लोक है छट्ठे अध्याय का

अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः |
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः||

अग्नि का त्याग कर दिया,क्रिया का त्याग कर दिया और सन्यासी हो गया उसका सन्यास और योग फला नहीं अभी। लेकिन कर्म तो कर रहा है काम्य कर्म, नित्य, नैमितिक कर्म तो करता है उसमे फल की इच्छा का सवाल ही नहीं होता।  स्नान करना उसमे फल की इच्छा क्या है? श्वास ले रहे छोड़ रहे उसमे फल की इच्छा क्या करोगे ?भोजन कर रहे हो भूख मिटे उसमें फल की इच्छा क्या करोगे ? तो फल की इच्छा रहित नित्य, नैमितिक कर्म तो करे लेकिन काम्य कर्म, जो जीवन खाने पीने रहने के लिए जो कामना वाले कर्म है उसमें से भी समय बचाकर निष्काम कर्म करें।ईश्वर प्रीत्यर्थ कर्म करें।

 बोले मैंने स्नान कर लिया निष्काम भाव से तो बड़ा काम कर लिया तूने।  मैंने रोटी खा ली निष्काम भाव से…..तो ये तो हँसी का विषय है। मैंने पानी पी लिया निष्काम भाव से। ऐसे ही संध्या-प्राणायाम, कमाई का कुछ हिस्सा, ये जो सत्कर्म है निष्काम भाव से किया ये तो भाई कर्त्तव्य है !! नित्य कर्त्तव्य ! नैमितिक कर्त्तव्य ! तो निष्काम कर्म , नित्य कर्म , नैमितिक कर्म ,काम्यकर्म, कामना वाले कर्म और फिर ऊँचा दर्जा आता है-निष्काम कर्म !

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

सेवा के बदले में नाम न चाहे

सेवा चाहे और सेवा के बदले में नाम चाहे तो सेवा के कर्म में आसक्ति होगी। यश चाहे, पद चाहे एक दूसरे का टाटिया खींचना चाहे और आप बड़ा बनना चाहे तो वे आदमी आध्यात्मिक जगत में विफल होते है और व्यवहारिक जगत में लम्बा समय सुखी नहीं रहते।  बिलकुल पक्की सच्ची बात है।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

निष्काम कर्म, ईश्वर प्रीत्यर्थे कर्म करें

छट्ठे अध्याय का पहला श्लोक में है

 ‘अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः |  स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः||

जो आसक्ति रहित होकर अपना नित्य कर्म, नैमितिक कर्म करता है, संध्या वंदन आदि नित्य कर्म है, दानपुण्य, सेवा-पूजा आदि नित्य कर्म है, और किसी निमित्त से जो कर्म मिल जाते है उसको नैमितिक कर्म बोलते है। नित्य कर्म और नैमितिक कर्म जो करता है लेकिन फल की आकांक्षा नहीं रखता। जैसे नित्य रात को नींद करते है तो सुबह संध्या करने में फल की इच्छा न रखे। रात को सोये तो सुबह स्नान कर लिया इसमें फल की इच्छा क्या रखें? तो रात की नींद का तमस दूर करना है तो सुबह का स्नान चाहिए। ऐसे ही मन का तमस दूर करना है तो संध्या-  प्राणायाम चाहिए। रात्रि में श्वासोश्वास में जो जीवाणु मरे, सुबह के संध्या-प्राणायाम से वो पातक नष्ट हो गये।  ह्रदय स्वच्छ हो गया, शुद्ध हो गया तन और मन। सुबह से दोपहर तक जो कुछ खाने पीने में, हेल चाल में जो कुछ वातावरण में जीवजंतु को हानि हो गई अंजाने में, फिर दोपहर की संध्या करके स्वच्छ हो गए। फिर शाम की संध्या करके स्वच्छ हो गए। संध्या करके स्वच्छ हो गए फिर ध्यान और जप करके थोड़े ऊपर उठे। ये है नित्य कर्म।

पंचयज्ञ है नित्य कर्म।  गौ को, ब्राह्मण को ,जीवजंतु को, अतिथि को कुछ न कुछ देना करना ये पाँच यज्ञ नित्य कर्म। दूसरे होते है नैमितिक कर्म। पर्वीय कर्म…उत्तरायण पर्व आया फिर चेटीचंड  का पर्व आया, शिवरात्रि का पर्व आया, गुढीपडवा आया उन पर्व के निमित्य जो कर्म करे। तो नित्य कर्म, नैमितिक कर्म करे।

तीसरे होते है ईश्वरप्रीति अर्थे कर्म। नित्य नैमितिक कर्म से तन मन स्वस्थ रहेगा | आप स्वर्ग तक की यात्रा कर लेंगे। कुछ और भी शुभ कर्म स्वर्ग की इच्छा करेंगे तो स्वर्ग तक की यात्रा कर लेंगे नहीं तो यहाँ स्वर्गीय जीवन जियेंगे। पैसे से अगर स्वर्गीय जीवन मिल जाता तो धनाढ्य लोग टेंशन में नहीं होते। टेंशन नरक है। डर और टेंशन नरक है।क्योंकि नित्य कर्म नैमितिक कर्म छूट गए। इसलिए तन की और मन की सात्विकता कम हो गयी। तनाव और टेंशन दुःख-बीमारी का शिकार हो गए।

चौथो होते हैं काम्य कर्म | धंधा रोजी-रोटी की कामना से जो कुछ किया वो होते है काम्य कर्म | काम्य कर्म का कुछ अंश निष्काम कर्म, ईश्वर प्रीत्यर्थे कर्म करें ।  ईश्वर प्रीत्यर्थ कर्म करने को कृष्ण ने कहा ”’अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः |  स संन्यासी च योगी च ” वो सन्यासी है, वो योगी है जो आसक्ति, फल की आकांशा रहित सत्कर्म कर लेता है।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

सेवा का फल कुछ नहीं चाहिए

सेवा चाहो मत , सेवा  करो उत्साह से। सेवा का फल चाहना सेवा धर्म को भ्रष्ट करना है। सेवा के फल को तुच्छ करना है। ......हमें तो कुछ नहीं चाहिए। जिसको कुछ नहीं चाहिए उसको सब कुछ जिसका है वो खुद मिल जाता है।

बलि देता ही जाता है कुछ नहीं चाहता है तो सब कुछ जिसका है वही वामन होके आता है। उससे भी कुछ नहीं चाहता है तो वामन उनका द्वारपाल हो जाता है। भगवान वामन बलि राजा का द्वारपाल हो जाता है। जिसका द्वारपाल भगवान है उसको कमी ही क्या रहेगी? शत्रु उनका क्या बिगाड़ेंगे? ऐसे ही तुम्हारे इन्द्रियों के द्वारपाल श्री हरि को कर दो। हे मेरे परमात्मा ! तुम ही रक्षक रहिये। तुम ही प्रेरक और पोषक रहिये। हे मेरे नाथ ! मेरे गुरु, मेरे हरी, मेरे इष्टदेव! प्रभु तेरी जय हो !      हरी ओ ओम ओ ओ ओ ओ ओम।  राम राम।  खूब आनंद ! मधुर आनंद !आत्मिक आनंद परमेश्वरिय आनंद का भाव करो। मस्ती…. माधुर्य….विश्रांति मैं सदा स्वस्थ हूँ।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

बहुत बहुत ऊँची सेवा

शक्ति , संपत्ति और योग्यता होने पर भी जो सेवा नहीं करते वे आलसी प्रमादी है।  सुख-आसक्त है और भाग्यहीन है। जो मनुष्य जन्म पाके सेवा का भाग्य नहीं पाते वे भाग्यहीन है।

किसी के दुःख मिटाने के बदले उसको सुखी करने का पौरुष करने वाला सेवक ज्यादा सफल होता है। और जो सुख देने की भावना से सेवा करता है तो दुःख तो मिटा ही देगा। दुःख मिटाना पर्याप्त नहीं उसे सुखी करना उसे प्रसन्न करना और सच्चे सुख की राह पे लगा देना ये बहुत बहुत ऊँची सेवा है|

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

सृष्टिकर्ता के साथ का तालमेल

सेवक में इतनी शक्ति होती है कि सेवक अगर अपनी सेवा में विफल होता है,  ईमानदारी से सेवा करता है और विफल होता है तो स्वामी परमात्मा फिर उसको सहाय करता है।  जहाँ दंड की जरूरत है वहां दंड भेज देता है और जहाँ पुरस्कार की जरूरत है वहां पुरस्कार भेज देता है। सृष्टिकर्ता के ह्रदय में सबका मंगल छुपा है। ऐसे ही सेवक के ह्रदय में सबका मंगल छिपेगा , मंगल छुपा रहेगा तो सृष्टिकर्ता के साथ अपने स्वभाव का तालमेल करके बहुत सुखी और ऊँचाइयों का अनुभव कर सकता है।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

मेरे सदगुरुदेव की निष्काम सेवा

 मेरे सदगुरु देव तुम्हारी जय हो। हरि हरि ओम ओ ओम ओ ओम ओ ओ ओ ओ ओम।

पुस्तको की गठरी उठाके जाते थे नैनीताल के गाँवों में। एक पहाड़ से उतर के दूसरे पहाड़ पर। गाँव बसा है वहाँ जाते । गाँव के लोगों को इकट्ठा करते।  उनको प्रसाद देते। काजू किशमिश जैसा प्रसाद ले जाते थे और कोई प्रसाद तो वजन उठाना पड़ता और एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ जाने में कितना श्रम होता है, वो जो जाते है वही जानते है। अस्सी साल की उम्र में मैंने उनको देखा और पच्चासी साल की उम्र में भी उनको ये सेवा करते देखा कि गठरी बाँध कर पुस्तको की अपने आश्रम से दूसरे गाँव जाते तो आश्रम जो पहाड़ी पर था…पहाड़ी पे तो और कुछ भी नहीं था।  तो सामने नीचे तलेठी में भी गाँव था और दूसरी पहाड़ियों पे भी गाँव।  कभी किसी गाँव में जाते।  सौ दोसौ के खपड़े के गाँव थे। कभी किसी  गाँववालों  को इकट्ठा करते।

प्रसाद  देते सत्संग सुनाते फिर उनको पुस्तक दे आते। नारी है तो नारी धरम जैसी पुस्तके। और युवान हो तो यौवन सुरक्षा जैसी पुस्तके। और कोई साधक भक्त है तो ‘ईश्वर की ओर‘ जैसी पुस्तके। भक्तों के और साधकों के अनुभव ‘योगयात्रा’ जैसी पुस्तके और उसी जैसी कोई और पुस्तके। भक्तों की चर्चा पढ़ते पढ़ते लोगों में भक्ति आ जाये। संयम की चर्चा पढ़ते पढ़ते लोगों में संयम आ जाये। आते और कहते की ‘देखिये! ये पुस्तक तो आपको दे जाता हूँ।  आज गुरुवार है अगले गुरुवार फिर आऊंगा। तब तक ये पुस्तक अच्छी तरह से पढ़ना पांच बार पढ़ लो तो अच्छी तरह से तो बहुत अच्छा, चार बार पढ़ लेंगे तो अच्छा लेकिन पढ़ लेना कृपा करके, जो अच्छा लगे याद रहे वो लिख लेना, हो सकता है की मैं कभी कुछ पूछ लूँ तो मेरे को बताना। तो फिर ये पुस्तक  तुम्हारे से मैं ले जाऊँगा और फिर दूसरी दे जाऊंगा।

ऐसा करके वो मोबाइल लाइब्रेरी चलाते थे अपने सिर पर। अस्सी साल की उम्र में भारत के लीलाशाह बापू गाँवों गाँवों जाकर पुस्तक बाटते और उनकी ही निष्काम सेवा आज  गाँव गाँव  "ऋषि प्रसाद"  रूप में साधकों के द्वारा हो रही है ये उन्ही का तो सनातन बीज है सेवा का । उन्ही की ही तो प्रेरणा है  की हम लोग भी सेवा का लाभ उठाके अपना जीवन धन्य कर रहे है। वो धनभागी है सेवक जो स्वामी के दैवी कार्य में अपने को लगा देते है। वही दैवी अनुभव में मस्त हो जाते है। तो क्या करेंगे ? हरि हरि ओम ओ ओ ओम

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

पूज्य बापूजी की सेवकों से उम्मीद

द्वेष को, कपट को ,अहंकार को त्यागकर संघठित होकर सेवा करो ऐसा स्वामी विवेकानंद बोला करते थे। समाज को आध्यात्मिकता  की आवश्यकता है।  समाज को स्नेह की आवश्यकता है।  समाज को स्वास्थ्य की आवश्यकता है। समाज को अच्छे संस्कार पोषने की आवश्यकता है और समाज को अच्छे में अच्छे पिया के प्रेम बाँटने वाले सेवकों की आवश्यकता है।  और यही उम्मीद आशाराम अपने साधकों से करेगा। हरि ॐ.....।  राम….

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

निःस्वार्थ सेवा हो सदा

हमेशा के लिए रहना नहीं इस धारे पानी में।
कुछ अच्छा काम कर लो चार दिन की जिंदगानी में।
तन से सेवा करो जगत की मन से प्रभु के हो जाओ।
शुद्ध बुद्धि से तत्वनिष्ठ हो जाओ मुक्त अवस्था को तुम पाओ।

निःस्वार्थ सेवा हो सदा मन मलिन होता स्वार्थ से।
जब तक रहेगा मन मलिन नहीं भेट होगी परमार्थ  से।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

जो सेवा करना चाहता है वो सुखी रहता है

जिनके जीवन में सेवा का सदगुण नहीं।  जिनके पास संपत्ति है , जिनके पास शक्ति है, जिनके पास योग्यता होते हुए भी सेवा नहीं करते वे आलसी है। वे प्रमादी है।  वे सुख के आसक्त है। वे अहंकार भोगी है। वे अहम पोषक है। जिनके पास शक्ति , संपत्ति,योग्यता, मति ,गति है अगर वे लोग उसका सदुपयोग सेवा में नहीं करते तो वे चीज़े उनको संसार के जन्म मरण में बांधती रहती है।

सेवा चाहता वे दुःखी? ….ना ना सेवा चाहने वाला दुखी नहीं होता है सेवा लेनेवाला दुखी रहता है। जो सेवा चाहता है सेवा करना चाहता है वो सुखी होता है लेकिन जो सेवा का लाभ लेना ही चाहता है या बदला चाहता है वो दुखी रहता है। जो सेवा चाहता है, सत्कर्म चाहता है दूसरों की सेवा करना चाहता है वो सुखी रहता है।   चाहे बाहर से उसके पास साधन कम हो फिर भी अंतकरण से वो सुखी रहता है राजा रहता है।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

सुख बाँटो

बुद्धि से तत्त्वनिष्ठ हो।  मुक्त अवस्था को इस जन्म में ही पाओ। आत्मबल जगाओ। सेवा को सुन्दर बनाने का संकल्प बढ़ाओ। सच्चा सेवक दुःख मिटाने की चिंता नहीं करता,वो तो सुख बाँटने में लग जाता है तो दुःख अपने आप भाग जाता है लोगोंका। सुख बाँटने की कोशिश करने वाला सेवक सुखी होता जाता है। दुःख मिटाना ही सेवा नहीं सुख बाँटना सच्ची सेवा है। जब सुख बाँटे तो दुःख रहेगा कहाँ? और सुख बाँटोगे तो सुख खुटेगा क्यों? 



पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

गुरु का विश्वास संपादन कर लेता है सेवक

सत्यम शिवम सुन्दरम। और जो सत्य है वही शिवकल्याणकारी है और वही सुन्दर है तो हृदय को सुन्दर बनाने के लिए सच्चाई से सेवा करे। सच्चाई से ईश्वर के हो और सच्चाई से गुरु के हो। सच्चाई से समाज के हो। समाज का, गुरु का, ईश्वर का विश्वास संपादन कर लेता है सेवक। गुरु कहेगा की मेरा सेवक है ये ऐसा भद्दा काम नहीं कर सकता है।  ये मेरा सेवक है। गुरु को संतोष होना चाहिए की ये मेरा सेवक है। ईश्वर को संतोष होना चाहिए की ये मेरा जीव है इतना घटिया काम नहीं कर सकता है। समाज को विश्वास होना चाहिए की ‘फलानो भाई …ना ना वो न हु अबिदु झूठु छे ‘ सेवक पर आरोप भी आएंगे।

सेवक यशस्वी होगा, उन्नत होगा उसको  देखकर लोग ईर्षा भी करेंगे, दाह भी आयेंगें, आरोप भी करेंगे और विघ्न भी आएंगे। लेकिन ये विघ्न,  ये आरोप , ये दाह सेवक की क्षमताएं विकसित करने के लिए आते है ऐसा सेवक को सदैव याद रखना चाहिए। और फिर सेवक को सुबह उठकर अपना आत्मबल बढ़ाना चाहिए।  लम्बे श्वास ले प्राणशक्ति को बढ़ाये, भावशक्ति को बढ़ाये, क्रियाशक्ति को बढ़ाये ऎसा ध्यान सीख लेना चाहिए। ऐसा ध्यान करना चाहिए। तो और सेवा में चार चाँद लग जायेंगे। हरि ॐ।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

सच्चाई से सेवा करें

जो बेईमानी से सेवा का यश लेना चाहते उन बेईमानो को सच्चा सुख मिलता भी नहीं है।  काम तो कोई करे और यश का अवसर आये तो खुद हार पहनाने को खड़े हो गए।  क्योंकी हार बदले में गले में पड़े …. अरे हार तो हार ही है भाई! जय राम जी की। अगर ईमानदारी से सच्चाई से सेवा करते तो अहंकार को हरा दे। अगर बेईमानी से तुम फूलाहार चाहते हो तो खुद को ही हरा रहे हो।
पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

आओ सेवा करें

कुछ लोग सेवा से मुकरने की आदत रखते है। ‘अच्छा ये तू कर ले, अरविन्द हा तू करी ले ,फलाना भाई तू वे कर ले ,अला अतिनै करू तू तया आल्या जाओ तू करू ,करू आ करो , आ करो ‘ऐसे सेवक विफल हो जाते सेवा में।

दो भाई थे। एक बड़ा एक छोटा। दोनों को बराबर संपत्ति मिली।  कुछ वर्षों बाद बड़े भाई ने मुक़दमा कर दिया छोटे भाई पर। न्यायलय में खटला गया।  न्यायाधीश ने केस चलाया और चेम्बूर में बुलाया बड़े भाई को, छोटे भाई को । बोले बड़े तुम कंगाल कैसे रह गए और तुम छोटे इतने अमीर कैसे हो गए ? जब तुम बोलते हो की हमने भले लिखा पढ़ी नहीं की लेकिन आधी आधी संपत्ति मिली थी। तो बराबर की संपत्ति मिलाने पर एक कंगाल और एक अमीर कैसे हो गया ? तो छोटे ने कहा ‘ मेरे बड़े भाई क्या करते थे की जाओ जाओ ये कर लो ! अरे, तेरे को बोला ये कर तूने नहीं किया अभी तक? अरे, ये कर ले , वो कर ले , जाओ जाओ, ये करो, जाओ जाओ तो इनका सब कुछ चला गया और मैं मित्रो से , साथियों से, नौकरों से ,मुनिमों से मिलकर कहता था की ‘आओ ! अपन ये कर लेंगे, आओ ये कर लेंगे, आओ ये कर लेंगे, आओ आओ। । मैंने आओ आओ सूत्र रखा और इसने जाओ जाओ इसीलिए उसका सब कुछ चला गया और मेरे पास सब कुछ आ गया।’


पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“