मेरे सदगुरु देव तुम्हारी जय हो। हरि हरि ओम ओ ओम ओ ओम ओ ओ ओ ओ ओम।
पुस्तको की गठरी उठाके जाते थे नैनीताल के गाँवों में। एक पहाड़ से उतर के दूसरे पहाड़ पर। गाँव बसा है वहाँ जाते । गाँव के लोगों को इकट्ठा करते। उनको प्रसाद देते। काजू किशमिश जैसा प्रसाद ले जाते थे और कोई प्रसाद तो वजन उठाना पड़ता और एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ जाने में कितना श्रम होता है, वो जो जाते है वही जानते है। अस्सी साल की उम्र में मैंने उनको देखा और पच्चासी साल की उम्र में भी उनको ये सेवा करते देखा कि गठरी बाँध कर पुस्तको की अपने आश्रम से दूसरे गाँव जाते तो आश्रम जो पहाड़ी पर था…पहाड़ी पे तो और कुछ भी नहीं था। तो सामने नीचे तलेठी में भी गाँव था और दूसरी पहाड़ियों पे भी गाँव। कभी किसी गाँव में जाते। सौ दोसौ के खपड़े के गाँव थे। कभी किसी गाँववालों को इकट्ठा करते।
प्रसाद देते सत्संग सुनाते फिर उनको पुस्तक दे आते। नारी है तो नारी धरम जैसी पुस्तके। और युवान हो तो यौवन सुरक्षा जैसी पुस्तके। और कोई साधक भक्त है तो ‘ईश्वर की ओर‘ जैसी पुस्तके। भक्तों के और साधकों के अनुभव ‘योगयात्रा’ जैसी पुस्तके और उसी जैसी कोई और पुस्तके। भक्तों की चर्चा पढ़ते पढ़ते लोगों में भक्ति आ जाये। संयम की चर्चा पढ़ते पढ़ते लोगों में संयम आ जाये। आते और कहते की ‘देखिये! ये पुस्तक तो आपको दे जाता हूँ। आज गुरुवार है अगले गुरुवार फिर आऊंगा। तब तक ये पुस्तक अच्छी तरह से पढ़ना पांच बार पढ़ लो तो अच्छी तरह से तो बहुत अच्छा, चार बार पढ़ लेंगे तो अच्छा लेकिन पढ़ लेना कृपा करके, जो अच्छा लगे याद रहे वो लिख लेना, हो सकता है की मैं कभी कुछ पूछ लूँ तो मेरे को बताना। तो फिर ये पुस्तक तुम्हारे से मैं ले जाऊँगा और फिर दूसरी दे जाऊंगा।
ऐसा करके वो मोबाइल लाइब्रेरी चलाते थे अपने सिर पर। अस्सी साल की उम्र में भारत के लीलाशाह बापू गाँवों गाँवों जाकर पुस्तक बाटते और उनकी ही निष्काम सेवा आज गाँव गाँव "ऋषि प्रसाद" रूप में साधकों के द्वारा हो रही है ये उन्ही का तो सनातन बीज है सेवा का । उन्ही की ही तो प्रेरणा है की हम लोग भी सेवा का लाभ उठाके अपना जीवन धन्य कर रहे है। वो धनभागी है सेवक जो स्वामी के दैवी कार्य में अपने को लगा देते है। वही दैवी अनुभव में मस्त हो जाते है। तो क्या करेंगे ? हरि हरि ओम ओ ओ ओम
पुस्तको की गठरी उठाके जाते थे नैनीताल के गाँवों में। एक पहाड़ से उतर के दूसरे पहाड़ पर। गाँव बसा है वहाँ जाते । गाँव के लोगों को इकट्ठा करते। उनको प्रसाद देते। काजू किशमिश जैसा प्रसाद ले जाते थे और कोई प्रसाद तो वजन उठाना पड़ता और एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ जाने में कितना श्रम होता है, वो जो जाते है वही जानते है। अस्सी साल की उम्र में मैंने उनको देखा और पच्चासी साल की उम्र में भी उनको ये सेवा करते देखा कि गठरी बाँध कर पुस्तको की अपने आश्रम से दूसरे गाँव जाते तो आश्रम जो पहाड़ी पर था…पहाड़ी पे तो और कुछ भी नहीं था। तो सामने नीचे तलेठी में भी गाँव था और दूसरी पहाड़ियों पे भी गाँव। कभी किसी गाँव में जाते। सौ दोसौ के खपड़े के गाँव थे। कभी किसी गाँववालों को इकट्ठा करते।
प्रसाद देते सत्संग सुनाते फिर उनको पुस्तक दे आते। नारी है तो नारी धरम जैसी पुस्तके। और युवान हो तो यौवन सुरक्षा जैसी पुस्तके। और कोई साधक भक्त है तो ‘ईश्वर की ओर‘ जैसी पुस्तके। भक्तों के और साधकों के अनुभव ‘योगयात्रा’ जैसी पुस्तके और उसी जैसी कोई और पुस्तके। भक्तों की चर्चा पढ़ते पढ़ते लोगों में भक्ति आ जाये। संयम की चर्चा पढ़ते पढ़ते लोगों में संयम आ जाये। आते और कहते की ‘देखिये! ये पुस्तक तो आपको दे जाता हूँ। आज गुरुवार है अगले गुरुवार फिर आऊंगा। तब तक ये पुस्तक अच्छी तरह से पढ़ना पांच बार पढ़ लो तो अच्छी तरह से तो बहुत अच्छा, चार बार पढ़ लेंगे तो अच्छा लेकिन पढ़ लेना कृपा करके, जो अच्छा लगे याद रहे वो लिख लेना, हो सकता है की मैं कभी कुछ पूछ लूँ तो मेरे को बताना। तो फिर ये पुस्तक तुम्हारे से मैं ले जाऊँगा और फिर दूसरी दे जाऊंगा।
ऐसा करके वो मोबाइल लाइब्रेरी चलाते थे अपने सिर पर। अस्सी साल की उम्र में भारत के लीलाशाह बापू गाँवों गाँवों जाकर पुस्तक बाटते और उनकी ही निष्काम सेवा आज गाँव गाँव "ऋषि प्रसाद" रूप में साधकों के द्वारा हो रही है ये उन्ही का तो सनातन बीज है सेवा का । उन्ही की ही तो प्रेरणा है की हम लोग भी सेवा का लाभ उठाके अपना जीवन धन्य कर रहे है। वो धनभागी है सेवक जो स्वामी के दैवी कार्य में अपने को लगा देते है। वही दैवी अनुभव में मस्त हो जाते है। तो क्या करेंगे ? हरि हरि ओम ओ ओ ओम
पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“
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