सबसे ऊँचे कर्म : निष्काम कर्म

पहला श्लोक है छट्ठे अध्याय का

अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः |
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः||

अग्नि का त्याग कर दिया,क्रिया का त्याग कर दिया और सन्यासी हो गया उसका सन्यास और योग फला नहीं अभी। लेकिन कर्म तो कर रहा है काम्य कर्म, नित्य, नैमितिक कर्म तो करता है उसमे फल की इच्छा का सवाल ही नहीं होता।  स्नान करना उसमे फल की इच्छा क्या है? श्वास ले रहे छोड़ रहे उसमे फल की इच्छा क्या करोगे ?भोजन कर रहे हो भूख मिटे उसमें फल की इच्छा क्या करोगे ? तो फल की इच्छा रहित नित्य, नैमितिक कर्म तो करे लेकिन काम्य कर्म, जो जीवन खाने पीने रहने के लिए जो कामना वाले कर्म है उसमें से भी समय बचाकर निष्काम कर्म करें।ईश्वर प्रीत्यर्थ कर्म करें।

 बोले मैंने स्नान कर लिया निष्काम भाव से तो बड़ा काम कर लिया तूने।  मैंने रोटी खा ली निष्काम भाव से…..तो ये तो हँसी का विषय है। मैंने पानी पी लिया निष्काम भाव से। ऐसे ही संध्या-प्राणायाम, कमाई का कुछ हिस्सा, ये जो सत्कर्म है निष्काम भाव से किया ये तो भाई कर्त्तव्य है !! नित्य कर्त्तव्य ! नैमितिक कर्त्तव्य ! तो निष्काम कर्म , नित्य कर्म , नैमितिक कर्म ,काम्यकर्म, कामना वाले कर्म और फिर ऊँचा दर्जा आता है-निष्काम कर्म !

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

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