ब्रह्मविचार-प्रधान सत्संग


ब्रह्मविचार-प्रधान जो सत्संग है, वह सत्संग जैसे-तैसे नहीं मिलता। अनधिकारी आदमी उस सत्संग में बैठ नहीं सकता। जिसका जप, तप, सेवा, पूजा, कुछ-न-कुछ उस अन्तर्यामी परमात्मा को, ईश्वर को स्वीकार हो गया है वही आदमी सदगुरू की प्राप्ति कर सकता है, सत्संगति की प्राप्ति कर सकता है। अन्यथा उसको कथा अथवा कहानियाँ, चुटकुले ही मिलकर रह जाएँगे। कथा-वार्ता तो साधारण आदमी को भी मिल जाती है। लेकिन सत्स्वरूप परमात्मा का संग हो जाये, बोध हो जाय ऐसा सत्संग मिलना दुर्लभ है।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य - ‘सहज साधना’

संत की सेवा

संत-महात्मा-सदगुरू की सेवा बड़े भाग्य से मिलती है। अभागे आदमी को तो संत की सेवा मिलती ही नहीं। उसे संत दर्शन की रूचि भी नहीं होती।
तुलसी पूर्व के पाप से हरिचर्चा न सुहाय।
कोई पुण्यात्मा है कि दुरात्मा, इसकी कसौटी करना है तो उसे ले जाओ किसी सच्चे संतपुरूष के पास। अगर वह आता है तो तुम उसे जितना पापी समझते हो उतना वह पापी नहीं है। अगर नहीं आता है तो तुम उसे जितना धर्मात्मा मानते हो उतना वह धर्मात्मा नहीं है। शास्त्रवेत्ता कहते हैं कि सात जन्म के पुण्य जब जोर मारते हैं तब संत-दर्शन की इच्छा होती है।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

अभ्यास में योग को मिला दो

अभ्यास तो सब करते हैं। झाडू लगाने का अभ्यास नौकरानी भी करती है और मतंग ऋषि के आश्रम में शबरी भी करती है। रोटी बनाने का अभ्यास बावर्ची भी करता है, माँ भी करती है और गुरू के आश्रम में शिष्य भी करता है। बावर्ची का रोटी बनाना नौकरी हो जाता है, माँ का रोटी बनाना सेवा हो जाती है और शिष्य का रोटी बनाना भक्ति हो जाती है। नौकरानी का झाड़ू लगाना नौकरी हो जाती है और शबरी का झाड़ू लगाना बन्दगी हो जाती है।
अभ्यास तो हम करते हैं लेकिन अभ्यास में योग को मिला दो। जिस अभ्यास का प्रयोजन ईश्वर प्राप्ति है, इष्ट की प्रसन्नता है, सदगुरू की प्रसन्नता है वह अभ्यास योग हो जाता है। जिस अभ्यास का प्रयोजन विकारों की तृप्ति है, वह अभ्यास संसार हो जाता है।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

सेवाभगत और मेवाभगत


भगवान बुद्ध ने एक बार घोषणा की किः
"अब महानिर्वाण का समय नजदीक आ रहा है। धर्मसंघ के जो सेनापति हैं, कोषाध्यक्ष हैं, प्रचार मंत्री हैं, व्यवस्थापक हैं तथा अन्य सब भिक्षुक बैठे हैं उन सबमें से जो मेरा पट्टशिष्य होना चाहता हो, जिसको मैं अपना विशेष शिष्य घोषित कर सकूँ ऐसा व्यक्ति उठे और आगे आ जाये।"
बुद्ध का विशेष शिष्य होने के लिए कौन इन्कार करे ? सबके मन में हुआ कि भगवान का विशेष शिष्य बनने से विशेष मान मिलेगा, विशेष पद मिलेगा, विशेष वस्त्र और भिक्षा मिलेगी।
एक होते हैं मेवाभगत और दूसरे होते हैं सेवाभगत। गुरू का मान हो, यश हो, चारों और बोलबाला हो तब तो गुरू के चेले बहुत होंगे। जब गुरू के ऊपर कीचड़ उछाला जायेगा, कठिन समय आयेगा तब मेवाभगत पलायन हो जाएँगे, सेवाभगत ही टिकेंगे।
बुद्ध के सामने सब मेवाभगत सत्शिष्य होने के लिये अपनी ऊँगली एक के बाद एक उठाने लगे। बुद्ध सबको इन्कार करते गये। उनको अपना विशेष उत्तराधिकारी होने के लिए कोई योग्य नहीं जान पड़ा। प्रचारमंत्री खड़ा हुआ। बुद्ध ने इशारे से मना किया। कोषाध्यक्ष खड़ा हुआ। बुद्ध राजी नहीं हुए। सबकी बारी आ गई फिर भी आनन्द नहीं उठा। अन्य भिक्षुओं ने घुस-पुस करके समझाया कि भगवान के संतोष के खातिर तुम उम्मीदवार हो जाओ मगर आनन्द खामोश रहा। आखिर बुद्ध बोल उठेः
"आनन्द क्यों नहीं उठता है ?"
आनन्द बोलाः "मैं आपके चरणों में आऊँ तो जरूर, आपके कृपापात्र के रूप में तिलक तो करवा लूँ लेकिन मैं आपसे चार वरदान चाहता हूँ। बाद में आपका सत्शिष्य बन पाऊँगा।"
"वे चार वरदान कौन-से हैं ?" बुद्ध ने पूछा।
"आपको जो बढ़िया भोजन मिले, भिक्षा ग्रहण करने के लिए निमंत्रण मिले उसमें मेरा प्रवेश न हो। आपका जो बढ़िया विशेष आवास हो उसमें मेरा निवास न हो। आपको जो भेंट-पूजा और आदर-मान मिले उस समय मैं वहाँ से दूर रहूँ। आपकी जहाँ पूजा-प्रतिष्ठा होती हो वहाँ मुझे आपके सत्शिष्य के रूप मे घोषित न किया जाए। इस ढंग से रहने की आज्ञा हो तो मैं सदा के लिए आपके चरणों में अर्पित हूँ।"
आज भी लोग आनन्द को आदर से याद करते हैं।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

व्यवहारिक वेदान्त

तुम्हारे सामने जो व्यक्ति आ जाय वह बढ़िया है। तुम्हारे सामने जो काम आ जाय वह बढ़िया है और तुम्हारे सामने में जो समय है वर्त्तमान, वह बढ़िया है।"
जिस समय तुम जो काम करते हो उसमें अपनी पूरी चेतना लगाओ, दिल लगाओ। टूटे हुए दिल से काम न करो। लापरवाही से काम न करो, पलायनवादी होकर न करो। उबे हुए, थके हुए मन से न करो। हरेक कार्य को पूजा समझकर करो। हनुमानजी और जाम्बवान युद्ध करते थे तो भी राम जी की पूजा समझकर करते थे। तुम जिस समय जो काम करो उसमें पूर्ण रूप से एकाग्र हो जाओ। काम करने का भी आनन्द आयेगा और काम भी बढ़िया होगा। जो आदमी काम उत्साह से नहीं करता, काम को भटकाता है उसका मन भी भटकने वाला हो जाता है। फिर भजन-ध्यान के समय भी मन भटकाता रहता है। इसलिए,

Work  while you work and play while you play, that is the way to be happy and gay.

जिस समय जो काम करो, बड़ी सूक्ष्मदृष्टि से करो, लापरवाही नहीं, पलायनवादिपना नहीं। जो काम करो, सुचारू रूप से करो। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय काम करो। कम-से-कम समय लगे और अधिक से अधिक सुन्दर परिणाम मिले इस प्रकार काम करो। ये उत्तम कर्त्ता के लक्षण हैं।
जिस समय जो व्यक्ति जो सामने आ जाय उस समय वह व्यक्ति श्रेष्ठ है ऐसा समझकर उसके साथ व्यवहार करो। क्योंकि श्रेष्ठ में श्रेष्ठ परमात्मा उसमें है न ! इस प्रकार की दृष्टि आपके स्वभाव को पवित्र कर देगी।
यह व्यवहारिक वेदान्त है।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

क्या बढ़िया ?

राजा सुषेण को विचार आया कि, "मैं किसी जीवन के रहस्य समझने वाले महात्मा की शरण में जाऊँ। पण्डित लोग मेरे मन का सन्देह दूर नहीं कर सकते।"
राजा सुषेण गाँव के बाहर महात्मा के पास पहुँचा। उस समय महात्मा अपनी बगीची में खोदकाम कर रहे थे, पेड़-पौधे लगा रहे थे। राजा बोलाः
"बाबाजी ! मैं कुछ प्रश्न पूछने को आया हूँ।"
बाबाजी बोलेः "मुझे अभी समय नहीं है। मुझे अपनी बगीची बनानी है।"
राजा ने सोचा कि बाबाजी काम कर रहे हैं और हम चुपचाप बैठें, यह ठीक नही। राजा ने भी कुदाली फावड़ा चलाया।
इतने में एक आदमी भागता-भागता आया और आश्रम में शरण लेने को घुसा और गिर पड़ा, बेहोश हो गया। महात्मा ने उसको उठाया। उसके सिर पर चोट लगी थी। महात्मा ने घाव पोंछा, जो कुछ औषधि थी, लगाई। राजा भी उसकी सेवा में लग गया। वह आदमी होश में आया। सामने राजा को देखकर चौंक उठाः
"राजा साहब ! आप मेरी चाकरी में ? मैं क्षमा माँगता हूँ....।" वह रोने लगा।
राजा ने पूछाः "क्यों, क्या बात है ?"
"राजन् ! आप राज्य में से एकान्त में गये हो ऐसा जानकर आपकी हत्या करने पीछे पड़ा था। मेरी बात खुल गई और आपके सैनिकों ने मेरा पीछा किया, हमला किया। मैं जान बचाकर भागा और इधर पहुँचा।"
महात्मा ने राजा से कहाः "इसको क्षमा कर दो।"
राजा मान गया। उस आदमी को दूध पिलाकर महात्मा ने रवाना कर दिया। फिर दोनों वार्तालाप करने बैठे। राजा बोलाः
"महाराज ! मेरे तीन प्रश्न हैं- सबसे उत्तम समय कौन-सा है ? सबसे बढ़िया काम कौन-सा है ? और सबसे बढ़िया व्यक्ति कौन सा है ? ये तीन प्रश्न मेरे दिमाग में कई महीनों से घूम रहे हैं। आपके सिवाय उनका समाधान देने की क्षमता किसी में भी नहीं है। आप पारावार-दृष्टि हैं, आप आत्मज्ञानी हैं, आप जीवन्मुक्त हैं, महाराज ! आप मेरे प्रश्नों का समाधान कीजिए।
महात्मा बोलेः "तुम्हारे प्रश्नों का जवाब तो मैंने सप्रयोग दे दिया है। फिर भी सुनः सबसे महत्त्वपूर्ण समय है वर्त्तमान, जिसमें तुम जी रहे हो। उससे बढ़िया समय आयेगा तब कुछ करेंगे या बढ़िया समय था तब कुछ कर लेते। नहीं.... अभी जो समय है वह बढ़िया है।
सबसे बढ़िया काम कौन-सा ? जिस समय जो काम सामने आ जाय वह बढ़िया।
उत्तम से उत्तम व्यक्ति कौन ? जो तुम्हारे सामने हो, प्रत्यक्ष हो वह सबसे उत्तम व्यक्ति है।
राजा असंमजस में पड़ गया। बोलाः
"बाबाजी ! मैं समझा नहीं।"
बाबाजी ने समझायाः "राजन् ! सबसे महत्त्वपूर्ण समय है वर्त्तमान। वर्त्तमान समय का तुमने आज सदुपयोग नहीं किया होता, तुम यहाँ से तुरन्त वापस चल दिये होते तो कुछ अमंगल घटना घट जाती। यहाँ जो आदमी आया था उसका भाई युद्ध में मारा गया था। उसका बदला लेने के लिए वह तुम्हारे पीछे लगा था। मैं काम में लगा था और तुम भी अपने वर्त्तमान का सदुपयोग करते हुए मेरे साथ लग गये तो वह बेला बीत गई। तुम बच गये।
सबसे बढ़िया का क्या ? जो सामने आ जाये वह काम सबसे बढ़िया। आज तुम्हारे सामने यह बगीची का काम आ गया और तुम कुदाली-फावड़ा लेकर लग गये। वर्त्तमान समय का सदुपयोग किया। स्वास्थ्य सँवारा। सेवाभाव से करने के कारण दिल को भी सँवारा। पुण्य भी अर्जित किया। इसी काम ने तुम्हें दुर्घटना से बचा लिया।
बढ़िया में बढ़िया व्यक्ति कौन ? जो सामने प्रत्यक्ष हो। उस आदमी के लिए अपने दिल में सदभाव लाकर सेवा की, प्रत्यक्ष सामने आये हुए आदमी के साथ यथायोग्य सदव्यवहार किता तो उसका हृदय-परिवर्तन हो गया, तुम्हारे प्रति उसका वैरभाव धुल गया।
इस प्रकार तुम्हारे सामने जो व्यक्ति आ जाय वह बढ़िया है। तुम्हारे सामने जो काम आ जाय वह बढ़िया है और तुम्हारे सामने में जो समय है वर्त्तमान, वह बढ़िया है।"

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

अनासक्तियोग

जिस समय जो शास्त्र-मर्यादा के अनुरूप कर्त्तव्य मिल जाय उस समय वह कर्त्तव्य अनासक्त भाव से ईश्वर की प्रसन्नता के निमित्त किया जाय तो वह पुण्य है। घर में महिला को भोजन बनाना है तो 'मैं साक्षात् मेरे नारायण को खिलाऊँगी' ऐसी भावना से बनायगी तो भोजन बनाना पूजा हो जायगा। झाड़ू लगाना है तो ऐसे चाव से लगाते रहो और चूहे की नाँई घर में भोजन बनाते रहो, कूपमण्डूक बने रहो। सत्संग भी सुनो, साधन भी करो, जप भी करो, ध्यान भी करो, सेवा भी करो और अपना मकान या घर भी सँभालो। जब छोड़ना पड़े तब पूरे तैयार भी रहो छोड़ने के लिए। अपने आत्मदेव को ऐसा सँभालो। किसी वस्तु में, व्यक्ति में, पद में आसक्ति नहीं। सारा का सारा छोड़ना पड़े तो भी तैयार। इसी को बोलते हैं अनासक्तियोग।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

चाहरहित शिष्य

सच्चा साधक, सत्शिष्य प्रतिष्ठा या सुविधा नहीं चाहता। वह तो सेवा के लिए ही सेवा करता है। सेवा से जो सुख और प्रतिष्ठा स्थायी बनती है वह सुख और प्रतिष्ठा चाहनेवालों के भाग्य में कहाँ से ? वह तो चाहरहित शिष्य को ही प्राप्त होती है।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

निष्काम कर्म करने पर फिर नितान्त एकान्त की आवश्यकता

विषय सुख की लोलुपता आत्मसुख प्रकट नहीं होने देती। सुख की लालच और दुःख के भय ने अन्तःकरण को मलिन कर दिया। तीव्र विवेक-वैराग्य हो, अन्तःकरण के साथ का तादात्म्य तोड़ने का सामर्थ्य हो तो अपने नित्य, मुक्त, शुद्ध, बुद्ध, व्यापक चैतन्य स्वरूप का बोध हो जाय। वास्तव में हम बोध स्वरूप हैं लेकिन शरीर और अन्तःकरण के साथ जुड़े हैं। उस भूल को मिटाने के लिए, सुख की लालच को मिटाने के लिए, दुःखियों के दुःख से हृदय हराभरा होना चाहिए। जो योग में आरूढ़ होना चाहता है उसे निष्काम कर्म करना चाहिए। निष्काम कर्म करने पर फिर नितान्त एकान्त की आवश्यकता है।
आरुरुक्षार्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।
'योग में आरूढ़ होने की इच्छावाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्व संकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जाता है।'
(भगवद् गीताः 6.3)

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

निष्काम कर्म करने वाले की अनूठी रीति

जो निष्काम सेवा करता है उसे ही भक्ति मिलती है। जैसे हनुमान जी रामजी से कह सकते थेः "महाराज ! हम तो ब्रह्मचारी है। हमको योगध्यान या अन्य कोई भी मंत्र दे दीजिएहम जपा करें। पत्नी आपकी खो गयीअसुर ले गये फिर हम क्यों प्राणों की बाजी लगायें?"
किंतु हनुमानजी में ऐसी दुर्बुद्धि या स्वार्थबुद्धि नहीं थी। हनुमानजी ने तो भगवान राम के काम को अपना काम बना लिया। इसलिए प्रायः गाया जाता हैः राम लक्ष्मण जानकीजय बोलो हनुमान की।
'श्रीरामचरितमानस' का ही एक प्रसंग है जिसमें मैनाक पर्वत ने समुद्र के बीचोबीच प्रकट होकर हनुमानजी से कहाः "यहाँ विश्राम करें।"
किंतु हनुमानजी ने कहाः
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम।
(श्रीरामचरित. सुं.का. 1)
निष्काम कर्म करने वाला अपने जिम्मे जो भी काम लेता हैउसे पूरा करने में चाहे कितने ही विघ्न आ जायेंकितनी ही बाधाएँ आ जायेंनिंदा हो या संघर्षउसे पूरा करके ही चैन की साँस लेता है। निष्काम कर्म करने वाले की अपनी अनूठी रीति होती हैशैली होती है।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य - ‘कर्म का अकाट्य सिद्धांत’

श्रद्धा और हित के साथ गुरु की सेवा करना

यदि अपने गुरु के प्रति भक्ति हो तो वे बतायेंगे कि, बेटा ! तुम गलत रास्तें से जा रहे हो। इस रास्ते से मत जाओ। उसको ज्यादा मत देखो, उससे ज्यादा बात मत करो, उसके पास ज्यादा मत बैठो, उससे मत चिपको, अपनी 'कम्पनी' अच्छी रखो, आदि।
जब गुरु के चरणों में तुम्हारा प्रेम हो जायगा तब दूसरों से प्रेम नहीं होगा। भक्ति में ईमानदारी चहिए, बेईमानी नहीं। बेईमानी सम्पूर्ण दोषों की व दुःखों की जड़ है। सुगमता से दोषों और दुःखों पर विजय प्राप्त करने का उपाय है ईमानदारी के साथ, सच्चाई के साथ, श्रद्धा के साथ और हित के साथ गुरु की सेवा करना।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

भक्ति का फल

निःस्वार्थता से आदमी की अंदर की आँखें खुलती हैं जबकि स्वार्थ से आदमी की विवेक की आँख मुँद जाती हैवह अंधा हो जाता है। रजोगुणी या तमोगुणी आदमी का विवेक क्षीण हो जाता है और सत्त्वगुणी का विवेकवैराग्य व मोक्ष का प्रसाद अपने-आप बढ़ने लगता है। आदमी जितना निःस्वार्थ कार्य करता है उतना ही उसके संपर्क में आनेवालों का हित होता है और जितना स्वार्थी होता उतना ही अपनी ओर अपने कुटुंबियों की बरबादी करता है। कोई पिता निःस्वार्थ भाव से संतों की सेवा करता है और यदि संत उच्च कोटि के होते हैं और शिष्य की सेवा स्वीकार कर लेते हैं तो फिर उसके पुत्र-पौत्र सभी को भगवान की भक्ति का सुफल सुलभ हो जाता है। भक्ति का फल प्राप्त कर लेना हँसी का खेल नहीं है।
भगवान के पास एक योगी पहुँचा। उसने कहाः भगवान ! मुझे भक्ति दो।"
भगवानः "मैं तुम्हे ऋद्धि-सिद्धि दे दूँ। तुम चाहो तो तुम्हें पृथ्वी के कुछ हिस्से का राज्य ही सौंप दूँ मगर मुझसे भक्ति मत माँगो।"
"आप सब देने को तैयार हो गये और अपनी भक्ति नहीं देते होआखिर ऐसा क्यों?"
"भक्ति देने के बाद मुझे भक्त के पीछे-पीछे घूमना पड़ता है।"
निष्काम कर्म करनेवाले व्यक्तियों के कर्म भगवान या संत स्वीकार कर लेते हैं तो उसके बदले में उसके कुल को भक्ति मिलती है। जिसके कुल को भक्ति मिलती है उसकी बराबरी धनवान भी नहीं कर सकता। सत्तावाला भला उसकी क्या बराबरी करेगा?

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘कर्म का अकाट्य सिद्धांत’

हम किसकी शरण हैं ?

भगवान का जप करते हैं लेकिन फल क्या पाना चाहते हैं? संसार। तो वे संसार के शरण हैं। माला घुमा रहे हैं नौकरी के लिए, जप कर रहे हैं शादी के लिए, ध्यान-भजन-स्मरण कर रहे हैं नश्वर चीजों के लिए, नश्वर कीर्ति के लिए। तो हम भगवान के शरण नहीं हैं, नश्वर के शरण हैं। अगर हमारा जप-ध्यान-अनुष्ठान पद-प्रतिष्ठा पाने के लिए है, व्यक्तित्व के शृंगार के लिए है तो हम भगवान के शरण नहीं हैं, शरीर के शरण हैं। 'हमें कोई महंत कह दे, हम ऐसा जियें कि हमारे महंतपद का प्रभाव पड़े, हम संत होकर जियें, साँई होकर जियें, लोगों पर प्रभाव छोड़ जायें, हम सेठ होकर जियें, साहूकार होकर जियें' – इस प्रकार की वासना भीतर है और हम भगवान की सेवा-पूजा-उपासना-आराधना करते हैं तो हम भगवान के शरण नहीं हैं। भगवान को अपनी इच्छापूर्ति का साधन बना दिया। हम शरण हैं माया के।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

हम सेवा करने वाले कौन होते हैं?

वास्तव में देखा जाये तो पुण्य करने वाले हम कौन होते हैं? परमात्मा पुण्य करवा रहा है। दान करने वाले हम कौन होते हैं? वह करवा रहा है। हम सेवा, जप करने वाले कौन होते हैं?हमारा तो अपना कुछ है ही नहीं।
एक लड़के ने माँ को कहाः "माँ ! तेरा ऋण चुकाने के लिए तन-मन-धन से सेवा करूँ। मेरे हृदय में तो आता है कि माँ, मेरी चमड़ी से तेरे चरणों की मोजड़ी बनवा दूँ।"
सुनकर माँ हँस पड़ीः "बेटा ! ठीक है। तेरी भावना है, मेरी सेवा हो गई। बस मैं संतुष्ट हूँ।"
"माँ तू हँसी क्यों?"
"बेटा ! तू कहता है कि मेरी चमड़ी से तेरी मोजड़ी बनवा दूँ। लेकिन यह चमड़ा तू कहाँ से लाया? यह चमड़ा भी तो माँ का दिया हुआ है।"
ऐसे ही यदि हम कहें किः 'हे प्रभु ! तेरे लिए मैं प्राणों का त्याग कर सकता हूँ, तेरे लिए घर-बार छोड़ सकता हूँ, तेरे लिए पत्नी-परिवार छोड़ सकता हूँ, तेरे लिए संसार छोड़ सकता हूँ....।' लेकिन घर-बार, संसार-परिवार लाये कहाँ से? उसी प्रभु का ही तो था। तुमने छोड़ा क्या? तुमने केवल उसको आदर देते हुए अपना अन्तःकरण पवित्र किया, वरना तुम्हारा तो कुछ था ही नहीं। जैसे बेटे का अपना चमड़ा है ही नहीं, माँ का दिया हुआ है वैसे ही जीव का अपना कुछ है ही नहीं। सब कुछ ईश्वर का ही है। लेकिन जीव मान लेता है कि, 'यह मेरा है... भगवान ! तुझे देता हूँ। मैंने इतना किया, उतना किया... अब तू कृपा कर।'

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

सेवा लेनी नहीं चाहिए

कई लोग भगवान का स्मरण करते हैं लेकिन रुपये कमाने के लिए। रूपये कमाते हैं वह तो ठीक है लेकिन संग्रह करने में लगे हैं, संग्रह की राशि बढ़ाने में लगे हैं। यह परमात्मा का स्मरण नहीं है, रूपयों का स्मरण है। ऐसे लोग माया में मोहित हो गये हैं, संसार में भटकते हैं, जन्मते और मरते हैं।
कई लोग भगवान का भजन करते हैं शारीरिक सुविधा-अनुकूलता पाने के लिए।
एक घुड़सवार जा रहा था। रहा होगा वेदान्ती, रहा होगा सदगुरु का शिष्य। रास्ते  हाथ से चाबुकर गिर पड़ा। कई यात्री पैदल चल रहे थे। किसी को न बोलकर स्वयं रुका, घोड़े से नीचे उतरा। गिरा हुआ चाबुक उठाया। किसी सज्जन ने पूछाः "भाई ! तुमने परिश्रम किया। हमको किसी को बोलते तो कोई न कोई चाबुक उठा देता। थोड़ी सेवा कर लेता।"
सवार कहता है किः "जगत में आकर मनुष्य को किसी की सेवा करनी चाहिए। सेवा लेनी नहीं चाहिए। दूसरों की सेवा ले तब जब बदले में अधिक सेवा करने की क्षमता हो।"
सेवा लेने की रूचि भक्तिमार्ग से गिरा देती है, साधना से गिरा देती है। छोटी-छोटी सेवा लेते-लेते बड़ी सेवा लेने की आदत बन जाती है। मेरे बदले कोई नौकर भगवान की सेवा-पूजा कर ले, मेरे बदले कोई पण्डित-ब्राह्मण जपानुष्ठान कर ले ऐसी वृत्ति बन जाती है। जीवन में आलस्य आ जाता है।
घुड़सवार कहता हैः "भैया ! मैं तुम्हारी सेवा अभी तो ले लूँ लेकिन फिर कौन जाने मिलें न मिलें। आपका प्रत्युपकार करने का मौका मिले न मिले। फिर कब ऋण चुका सकूँ? जन्म हुआ है सेवा करने के लिए, शरीर का सदुपयोग करने के लिए। जैसे दीया तेल और बाती जलाकर दूसरों के लिए रोशनी करता है ऐसे ही आदमी को चाहिए कि वह अपनी शक्ति और समय का सदुपयोग करके विश्व में उजाला करे। ऐसा नहीं कि दूसरे के दीये पर ताकता रहे। आप मेरी सेवा तो कर लेते लेकिन मेरे को आपकी सेवा का मौका कब मिलता? मेरे पर आपका ऋण क्या?"
"इतनी जरा-सी सेवा में ऋण क्या?"
"जरा-जरा से आदमी बड़ी सेवा पर आ जाता है। छोटी-छोटी गलतियों से आदमी बड़ी गलती पर चला जाता है।"
गाफिल साधक मन ही मन समाधान कर लेता है कि किसी व्यक्ति से थोड़ी बातचीत कर ली तो क्या हुआ? थोड़ी सी गपशप लगा ली तो क्या हुआ? ऐसे करते-करते वह पूरा जीवन बरबाद कर देता है। माया में ही उलझा रह जाता है। माया बड़ी दुस्तर है।
माया को तर जाना अगर आदमी के हाथ की बात होती तो शास्त्र आज्ञा नहीं देते कि संतों का संग करो। सच्चे संत और गुरुजनों का स्वभाव होता है कि कैसे भी करके साधकों को माया से पार होने में सहाय करना। इसलिए तो आवश्यकता आने पर क्रोध भी दिखा देते हैं, डाँटते-फटकारते भी हैं। वे किसी के दुश्मन थोड़े ही हैं? वे जब डाँटते हैं तो तुम तर्क करके अपना बचाव मत करो। अपनी गलती खोजो, अपनी बेवकूफी को ढूँढो। साधक-साधिका बन जाना कठिन नहीं है लेकिन अपनी निम्न आदतें बदल देना, बन्धनों को  काटकर मुक्त हो जाना, त्रिगुणमयी माया को तर जाना बड़े पुरुषार्थ का काम है। सबसे बड़ा पुरुषार्थ यह है कि हम सम्पूर्णतया परमात्मा के शरण हो जायें। उनकी स्मृति इतनी बनी रहे कि संसार की आसक्ति छूट जाय। संसार का मोह न रहे, आकर्षण न रहे।
जब खुली बाजार सौदा न किया।
अब रही हड़ताल गाफिल से दिया।।
कहीं ऐसा न हो जाय इसलिए सावधान रहना। जीवन का अन्तिम श्वास आ जाय, जीवन की हड़ताल होने लगे तब कहीं पश्चाताप हाथ न लगे। इसलिए अभी से ही मोक्ष का सौदा कर लो।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

जो अपने दुःखों को मिटाना चाहे

जे को जनम मरण ते डरे।
साध जनां की शरणी पड़े।।
जे को अपना दुःख मिटावे।
साध जनां की सेवा पावे।।
जिसको जन्म-मृत्यु के भय से पल्ला छुड़ाना हो उसे संतों के शरण में जाना चाहिए। जो सचमुच अपने दुःखों को मिटाना चाहे उसे संतों की सेवा प्राप्त कर लेनी चाहिए।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

ब्रह्मज्ञानी का योगभ्रष्ट सेवक भी पूजित

कोई मुसाफिर होते हैं तो पथ से लौटते रहते हैं लेकिन सदगुरु के रास्ते चला और पथ से लौटा तो सत्शिष्य किस बात का? अगर लौट भी गया तो जो हजारों यज्ञ करने से भी मिलना कठिन है वह स्वर्ग और ब्रह्मलोक का सुख उसे अनायास मिलता है।
शुक्र अपने ब्रह्मवेत्ता पिता भृगु ऋषि की सेवा में रहकर साधना कर रहे थे। सेवा से निवृत्त होते तो योगाभ्यास में लग जाते, ध्यान करते। साधना करते-करते उनकी वृत्ति सूक्ष्म हुई तो सूक्ष्म जगत में गति होने लगी। अभी परमपद पाया न था। न अज्ञानी थे न ज्ञानी थे। बीच में झूले खा रहे थे। एक दिन आकाश मार्ग से जाती हुई विश्वाची नामक अप्सरा देखी तो मोहित हो गये। अन्तवाहक शरीर से उसके पीछे स्वर्ग में गये।
इन्द्र ने उन्हें देखा तो सिंहासन छोड़कर सामने आये। स्वागत किया और अपने आसन पर बिठाकर पूजा करने लगे।
"आज हमारा स्वर्ग पवित्र हुआ कि महर्षि भृगु के पुत्र और सेवक तुम स्वर्ग में आये हो।"
हालाँकि वे गये तो थे विश्वाची अप्सरा के मोह में फिर भी उनकी की हुई साधना व्यर्थ नहीं गई। इन्द्र भी अर्घ्यपाद्य से उनकी पूजा करते हैं। ब्रह्मज्ञान की इतनी महिमा है कि ब्रह्मज्ञानी का योगभ्रष्ट सेवक भी सुरपति से पूजा जा रहा है।
आप लोग तीन-चार दिन की ध्यान योग शिविरों में जो आध्यात्मिक धन कमा लेते हो इतना मूल्यवान खजाना आपने पूरे जीवन में नहीं कमाया होगा। इससे हमारे पूर्वजों का भी कल्याण होता है। तुम्हारी बुद्धि स्वीकार करे या न करे, तुम्हें अभी वह पुण्य-संचय दिखे या न दिखे लेकिन बात सौ प्रतिशत सत्य है।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

गुरु दीवो गुरु देवता

गुरु दीवो गुरु देवता गुरु विण घोर अन्धार।
जे गुरु वाणी वेगळा रड़वड़िया संसार।।
जो गुरु वाणी से दूर हैं वे खाक धनवान हैं? जो गुरु के वचनों से दूर हैं वे खाक सत्तावान हैं? जो गुरु की सेवा से विमुख हैं वे खाक देवता हैं? वे तो भोगों के गुलाम हैं। जो गुरु के वचनों से दूर हैं वे क्या खाक अमृत पीते हैं? उनको तो पद-पद पर राग-द्वेष का जहर पीना पड़ता है।
-पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

सच्ची सेवा तो संत पुरुष ही करते हैं

दुःख को हरते सुख को भरते करते ज्ञान की बात जी।
जग की सेवा लाला नारायण करते दिन रात जी।।
सच्ची सेवा तो संत पुरुष ही करते हैं। सच्चे माता-पिता तो वे संत महात्मा गुरु लोग ही होते हैं। हाड़-मांस के माता-पिता तो तुमको कई बार मिले हैं। तुमने लाखों-लाखों बाप बदले होंगे, लाखों-लाखों माँए बदली होंगी। लाखों-लाखों कण्ठी बाँधनेवाले गुरु बदले होंगे, लेकिन जब कोई सदगुरु मिलते हैं तो तुम्हें ही बदल देते हैं।

-पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

सेवा करके वेदांत में आना चाहिए

तन सुकाय पिंजर कियो धरे रैन दिन ध्यान।
तुलसी मिटै न वासना बिना विचारे ज्ञान।।
करोड़ों वर्ष की समाधि करो लेकिन आत्मज्ञान तो कुछ निराला ही है। ध्यान भजन करना चाहिए, समाधि करनी चाहिए लेकिन समाधिवालों को भी फिर इस आत्मज्ञान में आना चाहिए। सेवा अवश्य करना चाहिए और फिर वेदान्त में आना चाहिए। नहीं तो, सेवा का सूक्ष्म अहंकार आयेगा। कर्तृत्व की गाँठ बँध जाएगी तो स्वर्ग में घसीटे जाओगे। स्वर्ग का सुख भोगने के बाद फिर पतन होगा।
वेदान्त का जिज्ञासु समझता है कि कर्मों का फल शाश्वत नहीं होता। पुण्य का फल भी शाश्वत नहीं और पाप का फल भी शाश्वत नहीं। पुण्य सुख देकर नष्ट हो जाएगा और पाप दुःख देकर नष्ट हो जाएगा। सुख और दुःख मन को मिलेगा। मन के सुख-दुःख को जो जानता है उसको पाकर पार हो जाओ। यही है वेदान्त। कितना सरल।

-पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

सात्त्विक श्रद्धा

सात्त्विक श्रद्धावाले साधक को ही तत्त्वज्ञान का अधिकारी माना गया है और केवल यही तत्त्वज्ञान होने पर्यन्त सदगुरु में अचल श्रद्धा रख सकता है। वह प्रतिकूलता से भागता नहीं और प्रलोभनों में फँसता नहीं। संदीपक ने ऐसी श्रद्धा रखी थी। सदगुरु ने कड़ी कसौटियाँ की, उसे दूर करना चाहा लेकिन वह गुरुसेवा से विमुख नहीं हुआ। गुरु ने कोढ़ी का रूप धारण किया, सेवा के दौरान कई बार संदीपक को पीटते थे फिर भी कोई शिकायत नहीं। कोढ़ी शरीर से निकलने वाला गन्दा खून, पीव, मवाद, बदबू आदि के बावजूद भी गुरुदेव के शरीर की सेवा-सुश्रुषा से संदीपक कभी ऊबता नहीं था। भगवान विष्णु और भगवान शंकर आये, उसे वरदान देना चाहा लेकिन अनन्य निष्ठावाले संदीपक ने वरदान नहीं लिया।

-पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

निष्काम कर्म की आवश्यकता

समाज को आपके प्रेम की, सान्त्वना की, स्नेह की और निष्काम कर्म की आवश्यकता है। आपके पास करने की शक्ति है तो उसे समाज की आवश्यकतापूर्ति में लगा दो। आपकी आवश्यकता माँ, बाप, गुरू और भगवान पूरी कर देंगे। अन्न, जल और वस्त्र आसानी से मिल जायेंगे। पर टेरीकोटन कपड़ा चाहिए, पफ-पॉवडर चाहिए तो यह रूचि है। रूचि के अनुसार जो चीजें मिलती हैं, वे हमारी हानि करती हैं। आवश्यकतानुसार चीजें हमारी तन्दुरूस्ती की भी रक्षा करती है। जो आदमी ज्यादा बीमार है, उसकी बुद्धि सुमति नहीं है।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘अनन्य योग’

निष्काम कर्म करके ईश्वर को संतुष्ट करें

जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक कर्मों का ऋणानुबंध चुकाना ही पड़ता है। अतः निष्काम कर्म करके ईश्वर को संतुष्ट करें और अपने आत्मा-परमात्मा का अनुभव करके यहीं पर, इसी जन्म में शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करें।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘कर्म का अकाट्य सिद्धांत’

भगवज्जनों की सेवा करते हो तो

धन पाकर, पद प्रतिष्ठा पाकर यदि आप अपने स्वार्थ की बातें सोचते हो व शोषण, छल-कपट तथा धोखाधड़ी करके सुखी होना चाहते हो तो कभी सुखी नहीं हो सकोगे क्योंकि गलत कर्म करने से आपकी अंतरात्मा ही आपको फटकारेगी और हृदय में अशांति बनी रहेगी। किंतु आप धन-पद-प्रतिष्ठा का उपयोग दूसरों की भलाई के लिए करते हो और जो अधिकार मिला है उससे भगवज्जनों की सेवा करते हो तो हृदय में शांति फलित होगी। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हैः
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥
'तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।'
(गीताः 3.19)


पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘कर्म का अकाट्य सिद्धांत’

जो जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है

कल्पना करोः दो व्यक्ति क्लर्क की नौकरी करते हैं और दोनों को तीन-चार हजार रूपये मासिक वेतन मिलता है। एक कर्म करने की कला जानता है और दूसरा कर्म को बंधन बना देता है। उसके घर बहन आयी दो बच्चों को लेकर। पति के साथ उसकी अनबन हो गयी है। वह बोलता हैः "एक तो महँगाई है, 500 रुपये मकान का किराया है, बाकी दूध का बिल, लाइट का बिल,बच्चों को पढ़ाना..... और यह आ गयी दो बच्चों को लेकर? मैं तो मर गया..." इस तरह वह दिन-रात दुःखी होता रहता है। कभी अपने बच्चों को मारता है, कभी पत्नी को आँखें दिखाता है,कभी बहन को सुना देता है। वह खिन्न होकर कर्म कर रहा है, मजदूरी कर रहा है और बंधन में पड़ रहा है।
दूसरे व्यक्ति के पास उसकी बहन दो बच्चों को लेकर आयी। वह कहता हैः "बहन ! तुम संकोच मत करना। अभी जीजाजी का मन ऐसा-वैसा है तो कोई बात नहीं। जीजाजी का घर भी तुम्हारा है और यह घर भी तुम्हारा ही है। भाई भी तुम्हारा ही है।"
बहनः "भैया ! मैं आप पर बोझ बनकर आ गयी हूँ।"
भाईः "नहीं-नहीं, बोझ किस बात का? तू तो दो रोटी ही खाती है और काम में कितनी मदद करती है ! तेरे बच्चों को भी देख, मुझे 'मामा-मामा' बोलते हैं, कितनी खुशी देते हैं ! महँगाई है तो क्या हुआ? मिल-जुलकर खाते हैं। ये दिन भी बीत जायेंगे। बहन ! तू संकोच मत करना और ऐसा मत समझना कि भाई पर बोझ पड़ता है। बोझ-वोझ क्या है? यह भी भगवान ने अवसर दिया है सेवा करने का।"
यह व्यक्ति बहन की दुआ ले रहा है, पत्नी का धन्यवाद ले रहा है, माँ का आशीर्वाद ले रहा है और अपनी अंतरात्मा का संतोष पा रहा है। पहला व्यक्ति जल भुन रहा है, माता की लानत ले रहा है, पत्नी की दुत्कार ले रहा है और बहन की बद्दुआ ले रहा है।
कर्म तो दोनों एक सा ही कर रहे हैं लेकिन एक प्रसन्न होकर, ईश्वर की सेवा समझकर कर रहा है और दूसरा खिन्न होकर, बोझ समझकर कर रहा है। कर्म तो वही है लेकिन भावना की भिन्नता ने एक को सुखी तो दूसरे को दुःखी कर दिया। अतः जो जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है।

-पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘कर्म का अकाट्य सिद्धांत’

निष्काम कर्म उपासना का पासपोर्ट

निष्काम कर्म उपासना का पासपोर्ट देता है उपासना ज्ञान का पासपोर्ट देती है। फिर भी यदि किसी ने पहले उपासना कर रखी है, बुद्धि बढ़िया है, श्रद्धा गहरी है और समर्थ सदगुरु मिल जाते हैं तो सीधा ज्ञान के मार्ग पर साधक चल पड़ता है। जैसे राजा जनक चल पड़े थे वैसे कोई भी अधिकारी साधक जा सकता है। कोई उपासना से शुरु कर सकता है। प्रायः ऐसा होता है कि सत्कर्म, शुभकर्म करते हुए, सदाचार से चलते हुए साधक आगे बढ़ता है। फिर उपासना में प्रवेश होता है। उपासना परिपक्व होने पर ज्ञान मार्ग में गति होने लगती है।
-पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘दैवी संपदा

निष्काम कर्म से अंतःकरण शुद्ध

कितनी भी खुशियाँ भोगो लेकिन आखिर क्या? खुशी मन को होती है। जब तक तन और मन से पार नहीं गये तब तक खुशी और गम पीछा नहीं छोड़ेंगे।
अंतःकरण की मलिनता मिटाने के लिए निष्काम कर्म है। निष्काम कर्म से अंतःकरण शुद्ध होता है। उपासना से चित्त का विक्षेप दूर होता है। ज्ञान से अज्ञान दूर होता है। फिर आदमी विकास की पराकाष्ठा पर पहुँचता है।
-पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘दैवी संपदा’