ब्रह्मज्ञानी का योगभ्रष्ट सेवक भी पूजित

कोई मुसाफिर होते हैं तो पथ से लौटते रहते हैं लेकिन सदगुरु के रास्ते चला और पथ से लौटा तो सत्शिष्य किस बात का? अगर लौट भी गया तो जो हजारों यज्ञ करने से भी मिलना कठिन है वह स्वर्ग और ब्रह्मलोक का सुख उसे अनायास मिलता है।
शुक्र अपने ब्रह्मवेत्ता पिता भृगु ऋषि की सेवा में रहकर साधना कर रहे थे। सेवा से निवृत्त होते तो योगाभ्यास में लग जाते, ध्यान करते। साधना करते-करते उनकी वृत्ति सूक्ष्म हुई तो सूक्ष्म जगत में गति होने लगी। अभी परमपद पाया न था। न अज्ञानी थे न ज्ञानी थे। बीच में झूले खा रहे थे। एक दिन आकाश मार्ग से जाती हुई विश्वाची नामक अप्सरा देखी तो मोहित हो गये। अन्तवाहक शरीर से उसके पीछे स्वर्ग में गये।
इन्द्र ने उन्हें देखा तो सिंहासन छोड़कर सामने आये। स्वागत किया और अपने आसन पर बिठाकर पूजा करने लगे।
"आज हमारा स्वर्ग पवित्र हुआ कि महर्षि भृगु के पुत्र और सेवक तुम स्वर्ग में आये हो।"
हालाँकि वे गये तो थे विश्वाची अप्सरा के मोह में फिर भी उनकी की हुई साधना व्यर्थ नहीं गई। इन्द्र भी अर्घ्यपाद्य से उनकी पूजा करते हैं। ब्रह्मज्ञान की इतनी महिमा है कि ब्रह्मज्ञानी का योगभ्रष्ट सेवक भी सुरपति से पूजा जा रहा है।
आप लोग तीन-चार दिन की ध्यान योग शिविरों में जो आध्यात्मिक धन कमा लेते हो इतना मूल्यवान खजाना आपने पूरे जीवन में नहीं कमाया होगा। इससे हमारे पूर्वजों का भी कल्याण होता है। तुम्हारी बुद्धि स्वीकार करे या न करे, तुम्हें अभी वह पुण्य-संचय दिखे या न दिखे लेकिन बात सौ प्रतिशत सत्य है।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

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