निष्काम कर्म करने पर फिर नितान्त एकान्त की आवश्यकता

विषय सुख की लोलुपता आत्मसुख प्रकट नहीं होने देती। सुख की लालच और दुःख के भय ने अन्तःकरण को मलिन कर दिया। तीव्र विवेक-वैराग्य हो, अन्तःकरण के साथ का तादात्म्य तोड़ने का सामर्थ्य हो तो अपने नित्य, मुक्त, शुद्ध, बुद्ध, व्यापक चैतन्य स्वरूप का बोध हो जाय। वास्तव में हम बोध स्वरूप हैं लेकिन शरीर और अन्तःकरण के साथ जुड़े हैं। उस भूल को मिटाने के लिए, सुख की लालच को मिटाने के लिए, दुःखियों के दुःख से हृदय हराभरा होना चाहिए। जो योग में आरूढ़ होना चाहता है उसे निष्काम कर्म करना चाहिए। निष्काम कर्म करने पर फिर नितान्त एकान्त की आवश्यकता है।
आरुरुक्षार्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।
'योग में आरूढ़ होने की इच्छावाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा जाता है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष का जो सर्व संकल्पों का अभाव है, वही कल्याण में हेतु कहा जाता है।'
(भगवद् गीताः 6.3)

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘साधना में सफलता’

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