जो जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है

कल्पना करोः दो व्यक्ति क्लर्क की नौकरी करते हैं और दोनों को तीन-चार हजार रूपये मासिक वेतन मिलता है। एक कर्म करने की कला जानता है और दूसरा कर्म को बंधन बना देता है। उसके घर बहन आयी दो बच्चों को लेकर। पति के साथ उसकी अनबन हो गयी है। वह बोलता हैः "एक तो महँगाई है, 500 रुपये मकान का किराया है, बाकी दूध का बिल, लाइट का बिल,बच्चों को पढ़ाना..... और यह आ गयी दो बच्चों को लेकर? मैं तो मर गया..." इस तरह वह दिन-रात दुःखी होता रहता है। कभी अपने बच्चों को मारता है, कभी पत्नी को आँखें दिखाता है,कभी बहन को सुना देता है। वह खिन्न होकर कर्म कर रहा है, मजदूरी कर रहा है और बंधन में पड़ रहा है।
दूसरे व्यक्ति के पास उसकी बहन दो बच्चों को लेकर आयी। वह कहता हैः "बहन ! तुम संकोच मत करना। अभी जीजाजी का मन ऐसा-वैसा है तो कोई बात नहीं। जीजाजी का घर भी तुम्हारा है और यह घर भी तुम्हारा ही है। भाई भी तुम्हारा ही है।"
बहनः "भैया ! मैं आप पर बोझ बनकर आ गयी हूँ।"
भाईः "नहीं-नहीं, बोझ किस बात का? तू तो दो रोटी ही खाती है और काम में कितनी मदद करती है ! तेरे बच्चों को भी देख, मुझे 'मामा-मामा' बोलते हैं, कितनी खुशी देते हैं ! महँगाई है तो क्या हुआ? मिल-जुलकर खाते हैं। ये दिन भी बीत जायेंगे। बहन ! तू संकोच मत करना और ऐसा मत समझना कि भाई पर बोझ पड़ता है। बोझ-वोझ क्या है? यह भी भगवान ने अवसर दिया है सेवा करने का।"
यह व्यक्ति बहन की दुआ ले रहा है, पत्नी का धन्यवाद ले रहा है, माँ का आशीर्वाद ले रहा है और अपनी अंतरात्मा का संतोष पा रहा है। पहला व्यक्ति जल भुन रहा है, माता की लानत ले रहा है, पत्नी की दुत्कार ले रहा है और बहन की बद्दुआ ले रहा है।
कर्म तो दोनों एक सा ही कर रहे हैं लेकिन एक प्रसन्न होकर, ईश्वर की सेवा समझकर कर रहा है और दूसरा खिन्न होकर, बोझ समझकर कर रहा है। कर्म तो वही है लेकिन भावना की भिन्नता ने एक को सुखी तो दूसरे को दुःखी कर दिया। अतः जो जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है।

-पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘कर्म का अकाट्य सिद्धांत’

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