भगवज्जनों की सेवा करते हो तो

धन पाकर, पद प्रतिष्ठा पाकर यदि आप अपने स्वार्थ की बातें सोचते हो व शोषण, छल-कपट तथा धोखाधड़ी करके सुखी होना चाहते हो तो कभी सुखी नहीं हो सकोगे क्योंकि गलत कर्म करने से आपकी अंतरात्मा ही आपको फटकारेगी और हृदय में अशांति बनी रहेगी। किंतु आप धन-पद-प्रतिष्ठा का उपयोग दूसरों की भलाई के लिए करते हो और जो अधिकार मिला है उससे भगवज्जनों की सेवा करते हो तो हृदय में शांति फलित होगी। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हैः
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥
'तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।'
(गीताः 3.19)


पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘कर्म का अकाट्य सिद्धांत’

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