चाहरहित शिष्य

सच्चा साधक, सत्शिष्य प्रतिष्ठा या सुविधा नहीं चाहता। वह तो सेवा के लिए ही सेवा करता है। सेवा से जो सुख और प्रतिष्ठा स्थायी बनती है वह सुख और प्रतिष्ठा चाहनेवालों के भाग्य में कहाँ से ? वह तो चाहरहित शिष्य को ही प्राप्त होती है।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’

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