सेवक चहीं, सुख लहीं ? नहीं नहीं सुख की अभिलाषा सेवक नहीं करता। मान की अभिलाषा सेवक नहीं करता। जब सुख और मान की अभिलाषा को हटाने के लिए सेवा करता है तो सुख और मान पर उसका अधिकार हो जाता है। तो अंदर से ही सुख और अंदर से ही सम्मानित जीवन उसका प्रकट होने लगता है।
पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“