सेवा लेनी नहीं चाहिए

कई लोग भगवान का स्मरण करते हैं लेकिन रुपये कमाने के लिए। रूपये कमाते हैं वह तो ठीक है लेकिन संग्रह करने में लगे हैं, संग्रह की राशि बढ़ाने में लगे हैं। यह परमात्मा का स्मरण नहीं है, रूपयों का स्मरण है। ऐसे लोग माया में मोहित हो गये हैं, संसार में भटकते हैं, जन्मते और मरते हैं।
कई लोग भगवान का भजन करते हैं शारीरिक सुविधा-अनुकूलता पाने के लिए।
एक घुड़सवार जा रहा था। रहा होगा वेदान्ती, रहा होगा सदगुरु का शिष्य। रास्ते  हाथ से चाबुकर गिर पड़ा। कई यात्री पैदल चल रहे थे। किसी को न बोलकर स्वयं रुका, घोड़े से नीचे उतरा। गिरा हुआ चाबुक उठाया। किसी सज्जन ने पूछाः "भाई ! तुमने परिश्रम किया। हमको किसी को बोलते तो कोई न कोई चाबुक उठा देता। थोड़ी सेवा कर लेता।"
सवार कहता है किः "जगत में आकर मनुष्य को किसी की सेवा करनी चाहिए। सेवा लेनी नहीं चाहिए। दूसरों की सेवा ले तब जब बदले में अधिक सेवा करने की क्षमता हो।"
सेवा लेने की रूचि भक्तिमार्ग से गिरा देती है, साधना से गिरा देती है। छोटी-छोटी सेवा लेते-लेते बड़ी सेवा लेने की आदत बन जाती है। मेरे बदले कोई नौकर भगवान की सेवा-पूजा कर ले, मेरे बदले कोई पण्डित-ब्राह्मण जपानुष्ठान कर ले ऐसी वृत्ति बन जाती है। जीवन में आलस्य आ जाता है।
घुड़सवार कहता हैः "भैया ! मैं तुम्हारी सेवा अभी तो ले लूँ लेकिन फिर कौन जाने मिलें न मिलें। आपका प्रत्युपकार करने का मौका मिले न मिले। फिर कब ऋण चुका सकूँ? जन्म हुआ है सेवा करने के लिए, शरीर का सदुपयोग करने के लिए। जैसे दीया तेल और बाती जलाकर दूसरों के लिए रोशनी करता है ऐसे ही आदमी को चाहिए कि वह अपनी शक्ति और समय का सदुपयोग करके विश्व में उजाला करे। ऐसा नहीं कि दूसरे के दीये पर ताकता रहे। आप मेरी सेवा तो कर लेते लेकिन मेरे को आपकी सेवा का मौका कब मिलता? मेरे पर आपका ऋण क्या?"
"इतनी जरा-सी सेवा में ऋण क्या?"
"जरा-जरा से आदमी बड़ी सेवा पर आ जाता है। छोटी-छोटी गलतियों से आदमी बड़ी गलती पर चला जाता है।"
गाफिल साधक मन ही मन समाधान कर लेता है कि किसी व्यक्ति से थोड़ी बातचीत कर ली तो क्या हुआ? थोड़ी सी गपशप लगा ली तो क्या हुआ? ऐसे करते-करते वह पूरा जीवन बरबाद कर देता है। माया में ही उलझा रह जाता है। माया बड़ी दुस्तर है।
माया को तर जाना अगर आदमी के हाथ की बात होती तो शास्त्र आज्ञा नहीं देते कि संतों का संग करो। सच्चे संत और गुरुजनों का स्वभाव होता है कि कैसे भी करके साधकों को माया से पार होने में सहाय करना। इसलिए तो आवश्यकता आने पर क्रोध भी दिखा देते हैं, डाँटते-फटकारते भी हैं। वे किसी के दुश्मन थोड़े ही हैं? वे जब डाँटते हैं तो तुम तर्क करके अपना बचाव मत करो। अपनी गलती खोजो, अपनी बेवकूफी को ढूँढो। साधक-साधिका बन जाना कठिन नहीं है लेकिन अपनी निम्न आदतें बदल देना, बन्धनों को  काटकर मुक्त हो जाना, त्रिगुणमयी माया को तर जाना बड़े पुरुषार्थ का काम है। सबसे बड़ा पुरुषार्थ यह है कि हम सम्पूर्णतया परमात्मा के शरण हो जायें। उनकी स्मृति इतनी बनी रहे कि संसार की आसक्ति छूट जाय। संसार का मोह न रहे, आकर्षण न रहे।
जब खुली बाजार सौदा न किया।
अब रही हड़ताल गाफिल से दिया।।
कहीं ऐसा न हो जाय इसलिए सावधान रहना। जीवन का अन्तिम श्वास आ जाय, जीवन की हड़ताल होने लगे तब कहीं पश्चाताप हाथ न लगे। इसलिए अभी से ही मोक्ष का सौदा कर लो।

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