निष्काम कर्म, ईश्वर प्रीत्यर्थे कर्म करें

छट्ठे अध्याय का पहला श्लोक में है

 ‘अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः |  स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः||

जो आसक्ति रहित होकर अपना नित्य कर्म, नैमितिक कर्म करता है, संध्या वंदन आदि नित्य कर्म है, दानपुण्य, सेवा-पूजा आदि नित्य कर्म है, और किसी निमित्त से जो कर्म मिल जाते है उसको नैमितिक कर्म बोलते है। नित्य कर्म और नैमितिक कर्म जो करता है लेकिन फल की आकांक्षा नहीं रखता। जैसे नित्य रात को नींद करते है तो सुबह संध्या करने में फल की इच्छा न रखे। रात को सोये तो सुबह स्नान कर लिया इसमें फल की इच्छा क्या रखें? तो रात की नींद का तमस दूर करना है तो सुबह का स्नान चाहिए। ऐसे ही मन का तमस दूर करना है तो संध्या-  प्राणायाम चाहिए। रात्रि में श्वासोश्वास में जो जीवाणु मरे, सुबह के संध्या-प्राणायाम से वो पातक नष्ट हो गये।  ह्रदय स्वच्छ हो गया, शुद्ध हो गया तन और मन। सुबह से दोपहर तक जो कुछ खाने पीने में, हेल चाल में जो कुछ वातावरण में जीवजंतु को हानि हो गई अंजाने में, फिर दोपहर की संध्या करके स्वच्छ हो गए। फिर शाम की संध्या करके स्वच्छ हो गए। संध्या करके स्वच्छ हो गए फिर ध्यान और जप करके थोड़े ऊपर उठे। ये है नित्य कर्म।

पंचयज्ञ है नित्य कर्म।  गौ को, ब्राह्मण को ,जीवजंतु को, अतिथि को कुछ न कुछ देना करना ये पाँच यज्ञ नित्य कर्म। दूसरे होते है नैमितिक कर्म। पर्वीय कर्म…उत्तरायण पर्व आया फिर चेटीचंड  का पर्व आया, शिवरात्रि का पर्व आया, गुढीपडवा आया उन पर्व के निमित्य जो कर्म करे। तो नित्य कर्म, नैमितिक कर्म करे।

तीसरे होते है ईश्वरप्रीति अर्थे कर्म। नित्य नैमितिक कर्म से तन मन स्वस्थ रहेगा | आप स्वर्ग तक की यात्रा कर लेंगे। कुछ और भी शुभ कर्म स्वर्ग की इच्छा करेंगे तो स्वर्ग तक की यात्रा कर लेंगे नहीं तो यहाँ स्वर्गीय जीवन जियेंगे। पैसे से अगर स्वर्गीय जीवन मिल जाता तो धनाढ्य लोग टेंशन में नहीं होते। टेंशन नरक है। डर और टेंशन नरक है।क्योंकि नित्य कर्म नैमितिक कर्म छूट गए। इसलिए तन की और मन की सात्विकता कम हो गयी। तनाव और टेंशन दुःख-बीमारी का शिकार हो गए।

चौथो होते हैं काम्य कर्म | धंधा रोजी-रोटी की कामना से जो कुछ किया वो होते है काम्य कर्म | काम्य कर्म का कुछ अंश निष्काम कर्म, ईश्वर प्रीत्यर्थे कर्म करें ।  ईश्वर प्रीत्यर्थ कर्म करने को कृष्ण ने कहा ”’अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः |  स संन्यासी च योगी च ” वो सन्यासी है, वो योगी है जो आसक्ति, फल की आकांशा रहित सत्कर्म कर लेता है।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति“

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