करने की शक्ति को परहित में लगाओ

अपनी करने की शक्ति को स्वार्थ में नहीं अपितु परहित में लगाओ तो करना तुम्हारा योग हो जायेगा। मानने की शक्ति है तो विश्वनियंता को मानो। वह परम सुहृद है और सर्वत्र है, अपना आपा भी है और प्राणी मात्र का आधार भी है। जो लोग अपने को अनाथ मानते हैं, वे परमात्मा का अनादर करते हैं।  जो बहन अपने को विधवा मानती है, वह परमात्मा का अनादर करती है। अरे ! जगतपति परमात्मा विद्यमान होते हुए तू विधवा कैसे हो सकती है ? विश्व का नाथ साथ में होते हुए तुम अनाथ कैसे हो सकते हो ? अगर तुम अपने को अनाथ, असहाय, विधवा इत्यादि मानते हो तो तुमने अपने मानने की शक्ति का दुरूपयोग किया। विश्वपति सदा मौजूद है और तुम आँसू बहाते हो ?
"मेरे पिता जी स्वर्गवास हो गये.... मैं अनाथ हो गया.........।"
"गुरुजी आप चले जायेंगे... हम अनाथ हो जाएँगे....।"
नहीं नहीं....। तू वीर पिता का पुत्र है। निर्भय गुरू का चेला है। तू तो वीरता से कह दे कि, 'आप आराम से अपनी यात्रा करो। हम आपकी उत्तरक्रिया करेंगे और आपके आदर्शों को, आपके विचारों को समाज की सेवा में लगाएँगे ताकि आपकी सेवा हो जाय।' यह सुपुत्र और सत् शिष्य का कर्त्तव्य होता है। अपने स्वार्थ के लिये रोना, यह न पत्नी के लिए ठीक है न पति के लिए ठीक है, न पुत्र के लिए ठीक है न शिष्य के लिए ठीक है और न मित्र के लिए ठीक है।

-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘अनन्य योग’

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