दीन-हीन, लूले-लँगड़े, गरीब लोगों को सहायता करना यह दया है। जो लोग विद्वान हैं, बुद्धिमान हैं, सत्त्वगुण प्रधान है। जो ज्ञानदान करते कराते हैं ऐसे लोगों की सेवा में जो चीजें अर्पित की जाती हैं वह दान कहा जाता है। भगवान के मार्ग में चलने वाले लोगों का सहाय रूप होना यह दान है। इतर लोगों को सहाय रूप होना यह दया है। दया धर्म का मूल है। दान सत्त्वगुण बढ़ाता है। जीवन में निर्भयता लाता है।
-पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य - ‘दैवी संपदा’
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