संतन की बात बात में बात

स्वामी प्रज्ञानंद जी महाराज बड़े उच्च कोटि के संत थे। गंगा किनारे से कुछ ही कदम दूर उनका भव्य आश्रम था। साधक भक्त वहाँ रहते थे। कभी-कभी अतिथि संत और मित्र संत भी वहाँ ठहरा करते थे।
एक बार स्वामी प्रज्ञानन्दजी किसी मित्र संत के साथ गंगाजी के बीच जाकर स्नान कर रहे थे। वहाँ उन्होंने अपने शिष्य को आवाज लगायीः
"मुक्तेश्वर....! ओ मुक्तेश्वर....!!"
मुक्तेश्वर लड़का आश्रम से भागता हुआ आया।
"गुरुजी ! क्या आज्ञा है ?"
"बेटा ! मुझे गंगाजल पीना है।"
मुक्तेश्वर आश्रम में गया। लोटा लाया। गंगा किनारे की बालू से माँजकर लोटा चकचकित किया और फिर गंगा में उतरा। गुरुजी मित्र संत के साथ जहाँ खड़े थे वहाँ जाकर लोटा पुनः धोकर गंगाजल से भरकर गुरुजी को दिया। उसको पता था कि गुरुजी बहती गंगा का जल पीते हैं। गुरुजी ने लोटे में से हाथ में जल की धारा करते हुए गंगाजल पिया। मुक्तेश्वर लोटा लेकर वापस चला गया। मित्र संत ने पूछाः
"आपको जब यहीं का गंगाजल हाथों से पीना था तो 'मुक्तेश्वर..... मुक्तेश्वर....' चिल्लाये, वह आया, वापस जाकर लोटा ले आया, बालू से साफ किया, गंगा में उतरा और यहीं से भरकर आपको दिया। आपने हाथों में ही पानी डालकर पिया। इतना सारा परिश्रम करवाया ?"
बाबाजी ने कहाः "इस बहाने उसको सेवा दी। और सेवा इसलिए दी कि उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाए ताकि ब्रह्मविद्या उसको पच जाय।"
ज्यों केले के पात पात में पात।
त्यों संतन की बात बात में बात।।

-पूज्य बापूजी : आश्रम पुस्तक - ‘समता साम्राज्य’

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