जिन सेव्या तिन पाया मान.....

जिन सेव्या तिन पाया मान.....।
सेवक को सेवा में जो आनन्द आता है वह सेवा की प्रशंसा से नहीं आता। सेवा की प्रशंसा में जिसे आनन्द आता है वह सच्चा सेवक भी नहीं होता।
आप अपनी सेवा, अपना सत्कर्म, अपना जप-तप, अपनी साधना जितनी गुप्त रखोगे उतनी आपकी योग्यता बढ़ेगी। अपने सत्कर्मों का जितना प्रदर्शन करोगे, लोगों के हृदय में उतनी तुम्हारी योग्यता नष्ट होगीष लोग बाहर से तो सलामी कर देंगे किन्तु भीतर समझेंगे कि यह तो यूँ ही कर दिया। कोई नेता बोलेगा तो लोग तालियाँ बजाएँगे, फिर पीछे बोलेंगे, यह तो ऐसा है। संत महापुरुषों के लिए ऐसा नहीं होता। महात्मा की गैरहाजरी में उनके फोटो की, प्रतिमाओं की भी पूजा होती है।
हम अपने श्रोताओं को यह सब क्यों सुना रहे हैं ? क्योंकि उन्हें जगाना है। मैं तुम लोगों को दिखावे का यश नहीं देना चाहता। वास्तविक यश के भागी बनो ऐसा मैं चाहता हूँ। इसीलिए सेवाधर्म के संकेत बता रहा हूँ।

-आश्रम पुस्तक - ‘समता साम्राज्य’

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