बहुजनहिताय बहुजनसुखाय

व्यक्तिगत सुख की कामना को बदलना हो तो बहुजनहिताय.... बहुजनसुखाय का संकल्प करो। परोपकारार्थ संकल्प होते ही और व्यक्तिगत सुख का संकल्प घटते ही आपकी विशालता बढ़ेगी। आपको अपने-आप सुख मिलेगा।
या वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति।
जो नितान्त छोटे हैं, वे व्यक्तिगत सुख के लिए उलझते हैं। जो उनसे थोड़े विकसित हैं वे परिवार के सुख का यत्न करते हैं। उनसे और थोड़े विकसित हैं वे पड़ोस के सुख का यत्न करते है। उनसे भी जो विकसित हैं वे क्रमशः तहसील के सुख का, राज्य के सुख का, राष्ट्र के सुख का और विश्व के सुख का यत्न करते है। उन सबसे जो अधिक विकसित हैं वे विश्वेश्वरस्वरूप में टिकने का प्रयत्न करते हैं। अपने विचारों का दायरा जितना बड़ा होगा, उतनी ही वृत्तियाँ विशाल होंगी। वृत्तियाँ जितनी विशाल होंगी, उतना ही आदमी सुखी होगा। वृत्तियाँ जितनी संकीर्ण होंगी, उतना ही आदमी दुःखी होगा। कुटुम्ब में भी जो व्यक्ति व्यक्तिगत संकीर्णता में जीता है उसका आदर नहीं होता। कुटुम्ब के दायरे  में जो जीता है, कुटुम्ब उसका आदर करता है। समाज के दायरे में  जो जीता है तो समाज उसका आदर करता है। जो विश्व का मंगल सोचता है, विश्व कल्याण में प्रवृत्त है वह विश्व की किसी भी जगह पर जाय तो उसकी सेवा करनेवाले, उसको सहयोग और सहकार देनेवाले लोग उसको प्राप्त हो जाते हैं। जैसे स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ आदि महापुरूष।
हमारी वृत्तियों का दायरा जितना-जितना बड़ा, उतना ही हमारा सुख बड़ा।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘सहज साधना’


No comments:

Post a Comment