माँ महँगीबा की निष्ठा


एक बार मैंने माँ से कहाः "आपको सोने में तौलेंगे।".... लेकिन उनके चेहरे पर हर्ष का कोई चिह्न नजर नहीं आया।
मैंने पुनः हिला हिलाकर कहाः "आपको सोने में तौलेंगे, सोने में !"
माँ- "यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता।"
मैंने कहाः "तुला हुआ सोना महिलाओं और गरीबों की सेवा में लगेगा।"
माँ- "हाँ... सेवा में भले लगे लेकिन मेरे को तौलना-वौलना नहीं।"
मगर सुवर्ण महोत्सव के पहले ही माँ की यात्रा पूरी हो गयी। बाद में सुवर्ण-महोत्सव के निमित्त जो भी करना था, वह किया ही।
मैंने कहाः "आपका मंदिर बनायेंगे।"
माँ- "यह सब कुछ नहीं करना है।"
मैं- "आपकी क्या इच्छा है ? हरिद्वार जायें ?"
माँ- "वहाँ तो नहाकर आये।"
मैं- "क्या खाना है ? यह खाना है ? (अलग-अलग चीजों के नाम लेकर)"
माँ- "मुझे अच्छा नहीं लगता।"
कई बार विनोद का समय मिलता तो हम माँ से उनकी इच्छा पूछते। मगर पूछ-पूछकर थक गये लेकिन उनकी कोई ख्वाहिश हमको कभी दिखी ही नहीं। अगर उनकी कोई भी इच्छा होती तो उनके इच्छित पदार्थ को लाने की सुविधा मेरे पास थी। किसी व्यक्ति से, पुत्र से, पुत्री से, कुटुम्बी से मिलने की इच्छा होती तो उनसे भी मिला देते। कहीं जाने की इच्छा होती तो वहाँ ले जाते लेकिन उनकी कोई इच्छा ही शेष नहीं थी।
न उनमें खाने की इच्छा थी, न कहीं जाने की, न किसी से मिलने की इच्छा थी, न ही यश-मान की.... जहाँ मान-अपमान सब स्वप्न है, उसमें उनकी स्थिति हो गयी थी, इसीलिए तो उन्हें इतना मान मिल रहा है।
इस प्रसंग से करोड़ों-करोड़ों लोगों को, समग्र मानव-जाति को जरूर प्रेरणा मिलती रहेगी।

पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘संत माता माँ महँगीबाजी के मधुर संस्मरण’


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