ऐसा मिला है कि कभी खूट नहीं सकता

हम जब सदगुरूदेव के पास गये थे तो शुरू में जरा कठिनाइयाँ थीं। मूँग उबालकर खा लेते। नगरसेठ का बेटा होकर झाड़ू लगाते, बर्तन माँजते, आश्रम में सेवा करते। गुरूदेव तो नहीं कहते लेकिन हम सेवा छीन लेते थे। आश्रम में लोग कभी आते थे तो रसोई के बड़े बर्तन भी होते थे। पहाड़ी पथरीली मिट्टी या कोयले की राख होती थी बर्तन माँजने के लिए। हाथ में चीरे पड़ जाते थे, खून निकलता था तो पट्टी बाँधकर बर्तन माँज लेते थे। उस समय देखने वालों को लगता होगा कि बड़ा दुःख भोग रहा है। लेकिन अब लगता है वाह ! ऐसा मिला है कि कभी खूट नहीं सकता। ऐसा रस दे दिया है गुरू की कृपा ने।
सात्त्विक सुख पहले जरा दुःख जैसा लगता है। बाद में उसका फल बड़ा मधुर होता है। राजसी सुख पहले सुखद लगता है लेकिन बाद में मुसीबत में डाल देता है। तामसी सुख में पहले भी परेशानी और बाद में भी परेशानी...घोर नर्क।
पूज्य बापूजी : आश्रम सत्साहित्य  - ‘आत्मयोग’

No comments:

Post a Comment