सच्ची सेवा

सच्ची सेवा का उदय उसी दिन से होता है कि सेवक प्रण करले कि मुझे इस मिटने वाले नश्वर शरीर को,कब छूट जाये कोई पता नहीं इस नश्वर शरीर से , इस नश्वर तन से अगर हो सके तो ,शारीरिक क्षमता हो तो, तन से सेवा करुँगा ।  और भाव सबके लिए अच्छा रखूंगा ये मन से सेवा करे ।  और लक्ष्य सबका ईश्वरीय सुख बनाऊंगा ये बुद्धि से सेवा करने का निर्णय कर ले और बदले में मेरेको कुछ नहीं चाहिए। बदले में कुछ नहीं चाहिए क्योंकि शरीर प्रकृतिका है मन प्रकृति का है बुद्धि प्रकृति की है. और जहाँ सेवा कर रहे है वो संसार प्रकृति का है। संसार के लोग प्रकृति के है, संसार की परस्थिति प्रकृति की है।  तो प्रकृति की चीजे प्रकृति में अर्पण कर देने से आप प्रकृति के दबाव से और प्रकृति के आकर्षण से मुक्त हो जाते है । जब प्रकृति के दबाव से और प्रकृति के आकर्षण से मुक्त हुए तो आप परमात्मा में टिक गए। जो आपका स्वतः स्वभाव था आप उसमे टिक गए। उसके आनंद में आप आ गए।

 ये एक दिन की बात नहीं है , धीरे धीरे होगा | लेकिन रोज ये मन को बताये कि हमको तो सेवा करनी है।

पूज्य बापूजी - ऑडियो सत्संग - “सेवा ही भक्ति “

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