सेवा की बलिहारी

महात्मा बुद्ध अपने शिष्यों को ध्यान-अभ्यास बताते थे। किसी का 20 साल के अभ्यास से ध्यान सधा तो किसी का 40 साल के अभ्यास से। किसी का 50 वर्ष के अभ्यास से भी ध्यान नहीं सधा और किसी ने युवावस्था में ध्यान शुरु किया और वृद्धावस्था तक भी ध्यान नहीं सधा।
महात्मा बुद्ध के निजी शिष्य थे आनंद। उन्होंने ध्यान के बारे में कभी बुद्ध से पूछा भी नहीं और बुद्ध ने उन्हें कभी बताया भी नहीं। आनंद बुद्ध को प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। रात दिन दिन उनकी सेवा में लगे रहते। एक बार आनंद के एक साथी ने उनसे कहाः “अब मुझे ध्यान की गहराइयों की अनुभूति हो रही है। अब चित्त बिल्कुल शातं हो गया है। इसकी प्राप्ति के लिए मुझे 80 साल लगे।”
आनंद ने यह बात सुनी तो उन्हें लगा कि ‘अभी तक तो मुझे ऐसी अवस्था की प्राप्ति हुई ही नहीं।’
आनंद ने अपने मन की बात बुद्ध को कही तो वे बोलेः “ध्यान तो तुम्हारे लिए चुटकी बजाने जितना सरल है।”
बुद्ध ने आनंद को ध्यानाभ्यास बताया और तीसरे दिन आनंद ध्यान में डूब गये, समाधि में खो गये।
आनंद ने कहाः “भंते ! क्या कारण है कि मैं वर्षों के बजाय 3 दिन में ही उस स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ ?”
बुद्ध हँसे, बोलेः “वत्स ! जो बिना सेवा के केवल ध्यान के द्वारा ही अंतःकरण को शुद्ध करना चाहते हैं उनके लिए यह एक बहुत लम्बी यात्रा है। सेवा के द्वारा तुम्हारा अंतःकरण इतना अधिक निर्मल हो चुका है कि अब तुम्हारे लिए ध्यान और समाधि बहुत ही आसान हो गये हैं।”
ऋषि प्रसाद : अप्रैल २०१७ 

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